धर्म

परमहंस स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से—107

राजा रघु के घर अज नामक पुत्र हुए और अज के दशरथ हुए। दशरथ अयोध्या के राजा हुए,वे पूर्व जन्म में ब्राह्मण थे।
इस पूर्व जन्म के ब्राह्मण का नियम था कि गांव से बाहर बने मन्दिर में प्रतिदिन एक हजार तुलसीदल परमात्मा को चढ़ाते थे बाद में भोजन प्रसाद तथा जलादि ग्रहण करते थे। एक दिन जब वह मन्दिर में तुलसीदल चढ़ाने आए तो किसी के रोने की आवाज सुनाई दी। देखा तो एक पिशाचिनी रो रही थी। पूछने पर उसने कहा,पिछले जन्म में मैंने अपने पति को बहुत दुख दिया था और बहुत ही पाप कर्म किए थे,जिसके कारण मुझे पिशाचिनी बनना पड़ा। आप कृपया मेरा उद्धार किजिए।

ब्राह्मण बड़ा दयालु था,उन्होंने परमात्मा से प्राथ्र्रना की,हे प्रभु यह जीव बहुत व्यथित हो रहा हैं। मैं अपना सारा पुण्य करके इस जीव का उद्धार कीजिए।

भक्त की पुकार से प्रभु प्रसन्न हुए और स्वयं प्रकट होकर कहा,जाओ तुम अगल जन्म में दशरथ बनोगे और यह तुम्हारी धर्म पत्नी-कौशल्या। मैं पुत्र रूप मैं तुम्हारे घर आऊंगा। ब्रह्मण ने वहीं अपना शरीर छोड़ दिया।

वहीं ब्रह्मण इस जन्म में दशरथ हुए। उनकी तीन रानियाँ थीं- कौशल्या,सुमित्रा और कैकेयी। राजा हर प्रकार से सम्पन्न था,परन्तु सन्तान कोई नहीं थी इसी से राजा बड़ा दुखी रहता था और चिन्तित रहता था कि मेरे बाद राज्य का क्या होगा? एक दिन राजा दशरथ गुरूदेव वशिष्ठ के आश्रम में गए,चरणों में प्रणाम किया और कहने लगे, हे गुरूदेव मुझ जैसा अभागी कौन हो सकता है जिसके घर का आंगन अीभी तक सुना पड़ा हैं। किसी भी नन्हें-मुन्ने की मुस्कान अभी तक दिखाई नहीं दी।

जिस रघुकुल में रघु जैसे महान् प्रतापी राजा हुए, उसी रघुकुल में मुझ जैसा नि:सन्तान अभागा पैदा हो गया, भविष्य में रघुकुल की बेल बिना फल की रह जायेगी। अत: गुरूदेव आप मुझ पर कृपा किजिए,आर्शीवाद दिजिए जिससे रघुकुल की बगिया हरी-भरी रहे। वसिष्ठजी ने कहा, हे राजन् पुत्रेष्टि यज्ञ करो, जिसके पूर्ण होने पर तुम्हारे घर चार पुत्रों का जन्म होगा।

विद्वान् पण्डितों को बुलाया गया और पूर्ण शास्त्रविधि के अनुसार पुत्रेष्टि यज्ञ का आयोजन किया गया तो यज्ञ-कुण्ड में से खीर लेकर स्वयं अग्रिदेव प्रकट हुए। उन्होंने राजा से कहा, हे राजन् इस प्रसाद को अपनी तीनों रानियों को खिला देना, आपके यहां सन्तान पैदा होगी। गुरू वसिष्ठ ने कहा, हे राजन् इस प्रसाद का आधा फल कौशल्या को तथा आधे का आधा-आधा भाग सुमित्रा तथा कैकयी को दे देना।
गुरूदेव के आशीर्वाद से,परमात्मा की पूर्ण कृपा से तीनों रानियां आशावती हो गई। महलों में खुशियां छा गई। जैसे सुखे वृक्ष पर हरियाली छा जाने पर सुन्दरता आ जाती है,ठीक उसी प्रकार दशरथ के महलों में प्रसन्नता की लहर दौडऩे लगी। नव-मास परिपूर्ण हुए , चैत्र मास का शुक्ल पक्ष का नवमी का पावन दिवस आया। दिन में बारह बजे मर्यादा पुरूषोत्तम राम का जन्म माता कौशल्या के गर्भ से हुआ। और सुमित्रा की कोख से दो राजकुमार लक्ष्मण तथा शत्रुघ्र और कैकयी की कोख से एक राजकुमार भरत
का जन्म हुआ। बाजे बजने लगे और सभी ने मंगल गीत गाए।
इस प्रकार चारो राजकुमारों का जन्मोत्सव मनाया गया। गुरू वसिष्ठ जी के द्वारा चारो राजकुमारों का नाम-करण किया गया। सबसे बड़े राजकुमार कौशल्या नन्दन हर प्राणी के घट में रमण करेंगे,उनका नाम रखा गया राम।
दूसरे कैकयी नन्दन संसार का भरण पोषण करेंगे अत: नाम रखा भरत। सुमित्रा नन्दन हर प्रकार के लक्षणों से परिपूर्ण होंगे अत: नाम रखा-लक्ष्मण,सबसे छोटे राजकुमार अन्दर और बाहर के शत्रुओं का वध करेंगे- उनका नाम रखा गया-शत्रुघन।

राजा दशरथ ने बाल स्वरूप देखा तो उनका हृदय पुलकित हो उठा, उस समय जिस आन्नद की अनुभूति हुई वह अकथनीय हैं, उसका वर्णन तो सरस्वती भी नहीं कर सकती। राजा जब राम को मधु चटाने लगे तो गुरूदेव वसिष्ठ से कहा गुरूदेव कृपा करके वेद मन्त्रों का पाठ किजिए। वसिष्ठजी ने कहा , हे राजन् इस बालक के रूप को देखकर वेदमन्त्र तो क्या मैं अपना नाम तक भूल गया हूँ।

समयोपरान्त चारों राजकुमारों की शिक्षा-दीक्षा गुरूकुल में सम्पन्न हुई। एक दिन दक्षिण भारत से विश्वामित्र आए। राजा दशरथ ने ऋषि का यथोचित आदर सत्कार किया,चरणों में प्रणाम किया और कहा,अयोध्या नगरी आपके पावन चरण कमलों से आज धन्य हो गई, महाराज। आपने आने का कष्ट क्यों किया? मुझे आप आश्रम में बुला लेते महाराज। मैं आपकी सेवा में हाजिर हो जाता। विश्वामित्रजी ने कहा, राजन् रावण के अत्याचारी राक्षस दक्षिण भारत में आकर हमें कष्ट दे रहे हैं। यज्ञ में मांस मदिरा डाल कर अपवित्र कर रहे हैं। आतंक फैला रहे हैं। यज्ञ की सुरक्षा हो, इसी कारण मैं आपके प्रिय राम तथा लक्ष्मण को ले जाने के लिए आया हूँ,मुझे आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि राम-लक्ष्मण हर प्रकार से इसके योग्य हैं।

राजा दशरथ पुत्रों के प्रति मोह-ग्रस्त थे, ऋषि कहने लगे,हे ऋषिवर। यदि आपकी आज्ञा हो तो आप के साथ रक्षा हेतु सेना भेज दूं? ऋषि ने कहा,नहीं। इतने में वसिष्ठजी आ गए। दोनों ने एक दूसरे को छाती से लगाया, गले मिले, क्यों वसिष्ठजी और विश्वामित्र गुरू भाई हैं। मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई। वार्तालाप हुई। वसिष्ठजी को जब पता चला,तो दशरथ को आज्ञा दी, दशरथ देर मत करो। इस समय शीघ्रातिशीघ्र राम और लक्ष्मण को विश्वामित्र के साथ भेज दो। दशरथ ने सहर्ष गुरू -आज्ञा को शिरोधार्य करके राम-लक्ष्मण को भेज दिया।
रास्तें में ताडक़-वन आया। इस ताडक़ -वन में ताडक़ा नाम की राक्षसी रहती थी। आगे आगे विश्वामित्र चल रहे थे, जब उस राक्षसी ने विश्वामित्र को देखा तो मारने के लिए दौड़ी। राम ने जब राक्षसी को देखा तो , झटपट से गुरूदेव के आगे आए और विनम्र शब्दों में प्रार्थना की, गुरूदेव शास्त्र विधान हैं कि नारी जाति पर शस्त्र मत उठाओं, नारी पूज्य है। अब आप मुझे आदेश दे कि शस्त्र उठाऊं या शास्त्र की आज्ञा मानूं? यदि शस्त्र की आज्ञानुसार वर्तता हूं तो यह राक्षसी आपको तथा हमको खा जायेगी।

विश्वामित्र ने कहा , राम यह नारी जाति पर कलंक हैं। यह नरभक्षी-दानवी है, इसलिए मैं आज्ञा देता हूं कि इस मांसाहारी राक्षसी का वध कर डालो। आज्ञा पाते ही राम ने धनुष पर बाण चढ़ाया,ऋषि चरणों में प्रणाम किया,और राक्षसी को समाप्त कर दिया। इस प्रकार राम के हाथों से तड़ाका नाम की राक्षसी को सद्गति प्राप्त हुई। आगे चलकर खर-दूषण,मारीच आदि राक्षसों ने आंतक फैला रखा था, उनको भगाया।

दक्षिण भारत में जाकर सन्तों को प्रणाम किया। कुछ ही दिनों में राम -लक्ष्मण ने रावण के जितने भी राक्षस थे,उनको भगा दिया या मार दिया। धर्म की स्थापनी की। सबसे अधिक अत्याचार हिन्दुधर्म पर दक्षिण भारत में हुए हैं। रावण से शुरू हुए और अभी भी सबसे पहले मुसलमान दक्षिण भारत में ही आए और उनकी पहली मस्जिद दक्षिण भारत में ही बनी। सबसे पहले अंगे्रज व्यापारी बनकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी के रूप में दक्षिण भारत में ही आए। सबसे पहली चर्च भी दक्षिण भारत में ही बनी। सबसे पहले धर्म परिवर्तित भी दक्षिण भारत में ही हुआ।

हिन्दु संस्कृति को भी देखना चाहते हो तो सबसे अधिक और सबसे सुन्दर दक्षिण भारत में ही मिलेंगे। हमने अपनी संस्कृति छोड़ दी हैं, परन्तु दक्षिण भारत में हिन्दु संस्कृति अब भी कायम हैं चाहे बड़े से बड़ा आफिस हो, लेकिन वेश भूषा हिन्दुओंवाली ही पहनेंगे।
इस प्रकार राक्षसों को भगाकर ऋषि मुनियों के यज्ञों की रक्षा-कार्य दोनों भाई करते रहे। एक दिन मिथिलापुरी से राजा जनक का दूत पत्र लेकर आया और विश्वामित्र को दिया। ऋषि ने पत्र खोला, लिखा था, हे महाराज, अपने परण सेवक जनक का प्रणाम स्वीकार करें। मेरी इकलौती पुत्री सीता का स्वयम्वर है कृपया आएँ और सीता को अपना आशीर्वाद प्रदान करें।

भारतीय संस्कृति कितनी महान् हैं? विवाह से पहले माता-पिता सन्त महात्मा को सत्संग व आशीर्वाद हेतु अपने घर बुलाते हैं और शादी के बाद महात्मा ,गुरूजनो के आश्रमों में जाकर आशीर्वाद लेतें हैं, आजकल कुछ विपरीत रीति-रिवाजों का चलन हो गया है। सन्त गुरूजनों के स्थान पर पार्टियों आदि होने लगी है,जिसमें शराब आदि का चलन हो गया है। सारी रात डांस,भंगड़ा,नृत्य आदि होते रहते हैं। पहले शादी के तुरन्त बाद मन्दिरों में जाकर पूजा करते थे तथा उनसे यही कामना करते थे। गृहस्थ धर्म सुचारू रूप से चले, लेकिन आजकल हनीमून के लिए जाते हैं, फिर चाहे जिन्दगी भर-तू-तू मैं-मैं में ही जिन्दगी क्यों न कटे। धर्म प्रेमी आत्माओं संस्कृति को कभी मत छोड़ो।

राजा जनक का निमन्त्रण पाकर विश्वामित्रजी ने राम-लक्ष्मण को साथ लेकर जानकपुरी की और प्रस्थान किया। रास्तें में एक पत्थर की शिला पड़ी हुई थी,जिस पर नारीचित्र अंकित था। विश्वामित्र ने श्रीराम से कहा राम, इस शिल्प पर अपने पैर रखो। राम ने शिला को गौर से देखा जिस पर नारी का चित्र अंकित था। राम सोच में पड़ गए और विनम्र शब्दों में प्रार्थना की,हे गुरूदेव मैं इसको प्रणाम करता हूँ। मैंने आज तक आपकी आज्ञा शिरोधार्य की हैं, परन्तु आज मैं आपकी आज्ञानुसार इस शिला पर पांव नहीं रख सकता,कूपा आप मुझे क्षमा करें। मैं आपकी आज्ञा का उल्लंघन कर रहा हूँ,इसीलिए सजा का अधिकारी हूँ,विश्वामित्र के पूछने पर श्रीराम ने प्रार्थना की, हे गुरू मैं परस्त्री को वन्दन करता हूँ, स्पर्श नहीं कर सकता। शास्त्रों में वर्णित है कि नारी का चित्र,चाहे कागज पर हो या पत्थर पर हो या किसी दीवार पर हो, वह पूज्य है। इस शिला पर किसी देवी का चित्र हैं इसीलिए, मैं इसको प्रणाम कर सकता हूं परन्तु पाँव नहीं रखूंगा। यह है मर्यादा। माताओ बहनों मैं कई बार कथा कहता हूं कि किसी भी सन्त महात्मा गुरूजनों के पैरों को हाथ मत लगाओं,दूर से प्रणाम करो,उनके वरदहस्त अपने सिर पर रखवाकर आशीर्वाद लो।

कई कहते हैं कि गुरू तो परमात्मा हैं। नहीं पचं भौतिक शरीर वाला कोई भी परमात्मा नहीं हो सकता, हाँ परमात्मा की ओर ले जाने वाले यह गुरू गाइड अवश्य हैं-
गुरूब्र्रह्मा,गुरूर्विष्णु:,गुरूर्देवो महेश्वर:।
गुरू: साक्षात् परब्रह्म तस्मैं श्रीगुरवे नम:।।

Related posts

परमहंस संत शिरोमणि स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से—200

ओशो : काहे होत अधीर

परमहंस संत शिरोमणि स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से—280

Jeewan Aadhar Editor Desk