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ओशो : पवित्र शब्दों का उपयोग

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मेरी बातों में रस आए,इतने धन्यवाद देने की कोई जरूरत नहीं ञ मेरी बातें अच्छी भी लगें,तो क्या होगा? अब तक मेरी बातें तुम्हारे भीतर घट न जाए…। धन्यवाद तो उस दिन देना।
प्रतीक्षा करो। थोड़ी राह देखो। मैं जो कह रहा हूं,उसमें उतरों। इतनी जल्दी धन्यवाद नहीं। यहां कोई औपचारिकता नहीं निभानी है।

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धन्यवाद मूल्यवान शब्द हैं। इसका ऐसे ही उपयोग नहीं करना। अक्सर ऐसा हो जाता है कि मूल्यवान शब्दों का हम ही उपयोग करने लगते हैं,तो उनका अर्थ ही खो जाता है। हमो पास जितने मूल्यवान शब्द हैं हमने सबको खराब कर दिया। प्रेम को शराब कर दिया- इतना मूल्यवान शब्द। शायद उसके पार परमात्मा ही एक शब्द है, जो उससे ज्यादा बहूमूल्य है। मगर उसको शराब कर दिया। किसी को आईसक्रीम से प्रेम है। किसी को कार से प्रेम है। किसी को कपड़ो से प्रेम है। कोई कहता है:मुझे कुत्ते से प्रेम है।

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तुमने प्रेम जैसी महत् धारण को कहां जोड़ दिया? पंसदगियों को प्रेम कहने लगे। आईसक्रीम पसंद हो सकती है,मगर प्रेम क्या है? प्रेम तो बड़ा शब्द है,बहुमल्य शब्द है। अगर इसका ऐसा उपयोग करोगे,तो निश्चित ही यह विकृत हो जाएगा। फिर स्त्री से कहोगे। मुझे तुमसे प्रेम है। वह सोचेगी: होगा वैसे ही,जैसे आईसक्रीम से है। फिर अर्थ कहां रहा प्रेम का? फिर तुम परमात्मा से एक दिन कहोगे: मुझे तुम से प्रेम है। परमात्मा मुंह फेर लेगा? वह कहेगा: होगा उसी तरह,जिस तरह तुम्हें अपने कुत्ते से है। तुम्हारे प्रेम का मूल्य ही कितना है?

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ऐसा ही शब्द ईष्वर है। बहूमूल्य शब्द है। उसका हमने उपयोग किया कि शराब कर दिया। हर बात में ईश्वर को खींच लाते हैं। छोटी-छोटी बात में उसे खींच लाते हैं। इतने पवित्र शब्दों का उपयोग बहुत सोचकर,समझकर,समय पर करना चाहिए।
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