धर्म

परमहंस संत शिरोमणि स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से— 669

गाँव में हर साल बड़े धूमधाम से रामलीला होती थी। बच्चे, बूढ़े, जवान – सभी शाम को अपना-अपना काम छोड़कर मैदान में पहुँच जाते। लेकिन एक बार कुछ युवकों ने सोचा – “ये तो बस नाटक है, भगवान कहाँ से इसमें आ जाते हैं? रोज़-रोज़ वही तीर-कमान, वही संवाद – समय क्यों बर्बाद करें?”

यह बात सुनकर गाँव के एक वृद्ध संत मुस्कुरा पड़े। उन्होंने युवकों को बुलाया और कहा –“बेटा, अगर तुम्हें रामलीला केवल नाटक लगती है तो मैं तुम्हें एक प्रसंग सुनाता हूँ।

जब रामलीला पहली बार बनारस में हुई थी, तब तुलसीदास जी स्वयं उसमें जाते थे। कहते हैं एक रात वे राम-भरत मिलन का दृश्य देख रहे थे। उस समय लीला में जो कलाकार थे, वे सचमुच रोने लगे। पूरा मैदान आँसुओं से भीग गया। क्यों? क्योंकि वह केवल अभिनय नहीं था, बल्कि रामकथा की जीवंत अनुभूति थी।”

युवकों ने पूछा – “तो इसमें क्या विशेष है?”

संत: “रामलीला केवल रंगमंच नहीं है, यह तो हमारे जीवन का आदर्श दर्पण है।

राम का त्याग हमें धर्म निभाने की सीख देता है। लक्ष्मण का साथ हमें भाईचारे की मिसाल देता है। सीता का धैर्य हमें कठिन समय में संयम सिखाता है। और हनुमान की भक्ति बताती है कि विश्वास और निष्ठा से असंभव भी संभव हो जाता है।

रामलीला इसलिए होती है ताकि हम कथा सुनकर राम को जी सकें, न कि केवल देख सकें। जब हम बार-बार इन प्रसंगों को देखते हैं, तो जीवन में बार-बार याद आता है – ‘सत्य पर चलना है, अधर्म से लड़ना है।’ यही इसका महत्व है।”

रामलीला को बच्चे देखते है तो उन्हें श्रीराम की मर्यादा का ज्ञान होता है। भरत के त्याग का पता चलता है। रावण के अहंकार का पता चलता है। बच्चों को पता चलता है कि गलत कार्य करने वाले को श्रीराम सजा अवश्य देते हैं। रामलीला श्रीराम के चरित्र व रामायण के ज्ञान को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में पहुंचाने का काम करती है।

संत की बातों से युवक चुप हो गए। उस रात वे भी रामलीला देखने पहुँचे और पहली बार उन्हें लगा कि सचमुच मंच पर केवल कलाकार नहीं, बल्कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम स्वयं आकर शिक्षा दे रहे हैं।

धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी,रामलीला केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि जीवन जीने की शिक्षा है। यह हमें धर्म, सत्य और आदर्शों की याद दिलाती है।

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