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सत्यार्थप्रकाश के अंश—47

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जैसे कोई एक लोहे का बाण वा गोला बनाकर उस में ऐसे पदार्थ रक्खे कि जो अग्रि के लगाने से वायु में धुंआ फैलने और सूर्य की किरण वा वायु के स्पर्श होने से अग्रि जल उठे इसी का नाम आग्रेशास्त्र है। जब दूसरा इस का निवारण करना चाहै तो उसी पर वारूणास्त्र छोड़ दे। अर्थात् जैसे शत्रु ने शत्रु की सेना पर आग्रेयास्त्र छोडक़र नष्ट करना चाहा वैसे ही अपनी सेना की रक्षार्थ सेनापति वरूणास्त्र से आग्रेयास्त्र का निवारण करे। वह ऐसे द्रव्यों के योग से होता है जिस का धुंआ वायु के स्पर्श होते ही बदल ोके झट वर्षने लग जावे, अग्रि को बुझा देवे। ऐसे ही नागपाश अर्थात् जो शत्रु पर छोडऩे से उस के अंगो को जकड़ के बांध लेता है। वैसे ही एक मोहनास्त्र अर्थात् जिस में नशे की चीज डालने से जिस के धुएं के लगने से सब शत्रु की सेना निद्रास्थ अर्थात् मुर्छित हो जाय। इसी प्रकार सब शासस्थ होते थे। और एक तार से वा शीसे से अथवा किसी और पदार्थ से विद्युत उत्पन्न करके शत्रुओं का नाश करते थे उसको भी आग्रेयास्त्र तथा पाशुपतास्त्र कहते हैं।
तोप और बन्दूक ये नाम अन्य देशभाषा के हैं। संस्कृत और आय्र्यावर्तीय भाषा के नहीं किन्तु जिस को विदेशाी जन तोप कहते हैं संस्कृत और भाषा में उस का नाम शतघ्री और जिस को बन्दूक कहते है उस को संस्कृत और आय्र्याभाषा में भुशुण्डी कहते हैं। जो संस्कृत विद्या को नहीं पढ़े वे भ्रम में पड़ कर कुछ का कुछ लिखते और कुछ का कुछ बकते हैं। उस का बुद्धिमान् लोग प्रमाण नहीं कर सकते। और जितनी विद्या भूगोल में फैली है वह सब आय्र्यवत्र्त देश से मिश्र वालों, उन से यूनानी,उन से रूम और उन से यूरोप देश में,उन से अमेरिका आदि देशों में फैली है। अब तक जितना प्रचार संस्कृत विद्या आय्र्यवत्र्त देश में है। उतना किसी अन्य देश में नहीं। जो लोग कहते हंै कि-जर्मनी देश में संस्कृत विद्या का बहुत प्रचार है और जितना संस्कृत मोक्षमूलर साहब पढ़े हैं उतना कोई नहीं पढ़ा। यह बात कहने मात्र हैं क्योंकि यस्मिदेशे दु्रमों नास्ति तत्रैरण्डोपि दु्रमायते। अर्थात् जिस देश में कोई वृक्ष नहीं होता उस देश में एरण्ड ही को वृक्ष मान लेते हैं। वैसे ही यूरोप देश में संस्कृत विद्या का प्रचार न होने से जर्मन लोगों और मोक्षमूलर साहब ने थोड़ सा पढ़ा वही उस देश के लिये अधिक है। परन्तु आय्र्यवत्र्त देश की ओर देंखे तो उन की बहुत न्यून गणना है। क्योंकि मैंने जर्मनी देशनिवासी के एक प्रिन्सिपल के पत्र से जाना कि जर्मनी देश में संस्कृत साहित्य और थोड़ी सी वेद की व्याख्या देख कर मुझ को विदित होता है कि मोक्षमूलर साहब ने इधर उधर आय्र्यावत्र्तीय लोगों की की हुई टीका देख कर कुछ-कुछ यथा तथा लिखा है।
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Jeewan Aadhar Editor Desk

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