धर्म

परमहंस स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से—113

भगवान राम प्रवर्षण प्रर्वत पर आए। हनुमानजी भी अपनी वानर सेना सहित रामजी की सेवा में उपस्थित हो गए। सीताजी की खोज करने का महान् कार्य हनुमानजी को सौंपा गया।

श्री रामजी ने अपने हाथ की मुद्रिका उतारी और हनुमानजी को देते हुए कहा- हे प्रिय यह मुद्रिका सीताजी को देना, देखकर वह समझ जायेगी कि तुम राम-भक्त हो और उनसे कहना कि मुझे उनका विरह हर क्षण सालता है तथा यहां की घटित घटनाएं उनको बताना और कहना कि हम शीघ्रतिशीघ्र आयेंगे उन्हें बन्धन मुक्त कराकर शीघ्र ही आयोध्या लौट जायेंगे। हे भक्त शिरोमणि उनका पता लगाकर शीघ्र ही आओ ताकि उनका कुशल समाचार जान पाँए।

हनुमानजी ने जमावन्त से विदा ली और आकाश मार्ग से पवन-गति से समुद्र के ऊपर उड़ान भरी, रास्ते में सुरसा नामक राक्षसी ने मार्ग रोकना चाहा तो मुष्टि प्रहार से उसका संहार किया और राम-राम का संकीर्तन करते हुए संायकाल लंका में प्रवेश किया। लंका का अलौकिक वैभव देखकर हनुमान् जी चकित रह गए।

मध्यारत्रि के समय हनुमान्जी सीता का पता लगाने के लिए ज्योंहि चलने को तैयार हुए तो एक राक्षसी,जिसका नाम लंकिनी था, ने रूकावट की तो हनुमान् जी ने उसको भी मार डाला। मरते हुए लंकिनी ने बताया कि मुझे त्योतिषी ने बताया था कि तुझे जब कोई मारने वाला लंका में आयेगा तो समझ लेना की रावण की मृत्यु बहुत पास हैं। लंकिनी ने यह भी हनुमान् जी से कहा कि यहाँ श्रीराम के नाम का जाप करते रहना ताकि राक्षसी प्रभाव आपको कोई हानि न पहुंचा सके।

हनुमान्जी सारी रात सीता जी को खोजते एक घर से दूसरे घर में घूमते रहे। परन्तु सीता जी वहां नहीं मिली, अन्त में प्रात:काल के समय विभीषण के महल में प्रवेश किया। वहां उन्होंने देखा कि विभीषण ने उठते ही पंलग पर बैठे बैठे राम का नाम स्मरण किया । हनुमान्जी ने सोचा कि इन राक्षसों की नगरी में राम-भक्त कौन् हैं? पता लगाने के लिए हनुमानजी ने ब्राह्मण का रूप बनाया और विभीषण के पास गए। विभीषण ने ब्राह्मण को देखकर प्रणाम किया और पूछा, कौन है आप? मेरे अहोभाग्य है जो प्रात:काल की शुभ बेला में आपके दर्शन हुए हैं । हनुमान्जी ने अपना परिचय दिया और सीता का पता पूछा।

विभीषण ने कहा, महाराज वैसे तो मैं अधम जाति का हूँ,परन्तु आज मुझे विश्वास हो गया है कि आप के दर्शन हुए हैं, तो भगवान् श्रीरामजी के दर्शन मुझे अवश्य होंगे और करूणासागर श्रीराम मुझे एक दिन अवश्य अपने चरणों का दस बनायेंगे। माता सीताजी । अशोक वन में समाधि लगाई हुई हैं, वहां आप उनके दर्शनार्थ जा सकते हैं।

हनुमान्जी अशोकवन में आए और अशोक वृक्ष पर बैठ गएं जहां सीताजी समाधि अवस्था में बैठी हुई राम-राम का जाप कर रही थी। शरीर कृश हो गया था, आंखों से अविरल अश्रुओं की झड़ी लगी हुई थी, केश खुले हुए थे। ऐसी विरह-दशा देखकर हनुमान्जी को बड़ा कष्ट हुआ और ऊपर से ही राम-मुद्रिका, जो पहचान के रूप में श्रीराम ने दी थी,सीता के चरणों के पास डाल दी और श्रीराम की गाथा प्रारम्भ की।

सीताजी के पास जब मुद्रिका पड़ी और कानों में श्रीराम- यशोगान की मधुर ध्वनि गई तो उनका ध्यान टूटा और कहा भैया, तुम कौन हों? कहाँ से आए हो? कृपया मेरे समक्ष आओ।
हनुमान्जी शाखा से कूदे,माताजी के समक्ष आकर चरणों में प्रणाम किया और हाथ जोडक़र विन्रम शब्दों में अपना परिचय देना प्रारम्भ किया, मां। मैं श्रीरामजी के चरणों का दास हूं उन्होंने यह मूद्रिका पहचान के रूप में आपको देने के लिए मुझे आदेश किया था। आपके दर्शन करके मेरा जीवन धन्य हो गया। माँ श्रीरामजी शीघ्र ही यहाँ आयेंगे और आपको संकटमुक्त करके अपने साथ ले जायेंगे। श्रीरामजी और लक्ष्मण कुशलक्षेम से हैं। उन्होंने आपकी कुशलता के समाचार लेकर शीघ्र ही लौटने के लिए मुझे कहा हैं। मां यदि आपकी आज्ञा हो तो , कुछ फल आदि खाकर क्षुधा शांत कर लूं? वाटिका में अनेक प्रकार के फल लगे हुए हैं, देखकर भूख और भी बढ़ गई हैं।

हनुमान्जी की बातें सुनकर माँ मुस्कुराई और कहा, बेटा राक्षस लोगों का वहां पहरा होता हैं। सावधानी से फल खाना।
हनुमान्जी ने वानर रूप बनाया और फल खाने लगे। मन में आया कि राक्षस रावण की इतनी सुन्दर वाटिका क्यों? ऐसा चिन्तन आते ही वृक्षों को तहस-नहस करना शुरू कर दिया। पहरेदारों ने जब रोका तो हनुमानजी ने कइयों को मार डाला, कइयों को घायल कर दिया,अन्त में इन्द्रजीत ने वहां आकर ब्रह्मास्त्र छोड़ा। हनुमानजी ब्रह्मास्त्र के सम्मान में, स्वयं को बंधवा दिया, उन्होनें सोचा यदि मैं ब्रह्मास्त्र में नहीं बंधूंगा तो इसकी महिमा घट जायेगी। इन्द्रजीत हनुमान्जी को बांधकर राजसभा में ले गया। रावण ने पूछा, हे बन्दर। तू कहां से आया हैं? क्यों आया हैं। और तूने वाटिका अजाड़ कर बहुत बड़ा अपराध किया हैं।

हनुमान्जी ने कहा, हे लंकेश मैं श्रीराम का दूत हूं। तुम्हें सन्मार्ग दिखाने आया हूं। तुमने माता का अपहरण करके मौत को निमंत्रण दिया हैं। अब भी समय है श्रीराम की शरण में आ जाओ, माता को उनको सौंपकर अपने दुष्कार्यों के लिए माफी मांग लो। वे करूणासागर हैं, तुम्हारे सारे अपराध क्षमा कर देंगे।

ऐसा सुनकर रावण को क्रोध आया और कहा, हे वानर। यदि तू दूत नहीं होता तो अभी मैं तुझे मौत के घाट उतार देता,परन्तु दूत को मारना राजनीति के विरूद्ध हैं। इसीलिए मैं तुझे मारूंगा नहीं, परन्तु तेरे किए की सजा अवश्य दूंगा। अपने सेवकजनों को आदेश दिया कि इसकी पूंछ पर रूई लपेट कर आग लगा दो। जब पूंछ विहीन बन्दर श्रीराम के पास जायेगा तो उन्हें दु:ख होगा। प्रतिशोध लेने के लिए शीघ्र आयेंगे। तब मैं देखूंगा कि वे दो तपस्वी बालक मुझसे कैसे युद्ध करेंगे?
रावण के आदेशानुसार हनुमानजी की पूँछ में रूई लपेट कर तेल छिडक़ दिया और आग लगा दी। आग की लपटे आसमान को छूने लगीं। वीर हनुमान्जी ने पूंछ को इधर-उधर घुमाकर सारी लंका में आग लगा दी, परन्तु विभीषण के महल तक ताप भी नहीं जाने दिया।

चारो तरफ हा-हाकार मच गया और सारे लंका निवासी त्राहि-त्राहि करते हुए माता सीताजी के पास आए और समाचार कह सुनाए। सीताजी प्रार्थना करने लगी हे अग्रिदेव यदि मैं पतिव्रता हूं तो आप मेरी प्रार्थना सुनकर शान्त हो जाओ। अग्रिदेव चंदन के समान शीतल हो गए। हनुमानजी ने अपनी पूँछ सागर में डुबोई और उसे बुझाकर स्नान किया और सीतामाता के सामने हाथ जोडक़र खड़े हो गए।

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