धर्म

ओशो : अंधेरे से मत लड़ो,दीए को जलाओं

ऐसे थे वे दिन। बुद्ध की तो महिमा थी ही। बुद्ध के दर्शन करके भी कोई अगर लौटता था, तो वह भी महिमावान हो जाता था। ऐसे ही जैसे कोई फूलों से भरे बगीचे से गुजरे, तो उसके वस्त्रों में फूलों की गंध आ जाती हैं। ऐसे ही कोई बुद्ध के पास से आए, तो उसमें थोड़ी सी तो गंध बुद्ध की समा ही जाती।

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तो यह कुटिकण्ण सोण अपने गांव से बुद्ध के दर्शन करने को गए। वहां से जब लौटे वापस, तो उनकी मां ने कहा: तुम धन्यभागी हो। तुम बुद्ध के शिष्य महाकात्यायन के शिष्य हो। तुम महाधन्यभागी हो, तुम बुद्ध के दर्शन करके लौटे। हम इतने धन्यभागी नहीं। चलो, हमें फूल न मिले, तो फूल की पाखुड़ी मिले। तुम जो लेकर लाए हो, उस ज्योति के दर्शन हमें कराओं। तो उसने प्रार्थना की कि तुमने जो सुना हो वहां, वह दोहराओ,हमसे कहो।
और दूसरी बात वह अकेली सुनने नहीं गयी। उसने सारे गांव में भेरी फिरवा दी और कहा कि कुटिकण्ण बुद्ध के पास होकर आए हैं,थोड़ी सी बुद्धत्व की संपदा लेकर आए हैं। वे बांटेंगे, सब आएं।
ऐसे थे वे दिन। क्योंकि जब परम धन लुटता हो, बंटता हो,तो अकेले-अकेले नहीं, भरी बजाकर सबको,निमंत्रण करके। इस जगत की जो संपदा हैं,उसमें दूसरों को निमंत्रित नहीं किया जा सकता। क्योंकि वे बांट लेंगे,तो तुम्हारे हाथ कम पड़ेगी। उस जगत की जो संपदा हैं,अगर तुमने अकेले ही उसको अपने पास रखना चाहा, तो मर जायेगी, मुर्दा हो जायेगी, सड़ जायेगी। तुम्हें मिलेगी ही नहीं। उस जगत की संपदा उसे ही मिलती हैं,जो मिलने पर बांटता हैं। जा मिलने पर बांटता चला जाता हैं। जो जितना बांटता हैं उतनी संपदा बढ़ती हैं।
इस जगत की संपदा बाटने से घटती हैं। उस जगत की संपदा बांटने से बढ़ती हैं। इस सूत्र को खयाल रखना।
तो भेरी बिजवा दी। सारें गांव को लेकर उपदेश सुनने गयी। स्वभावत:सारा गांव उपदेश सुनने गया। चारों की बन आयी। गांव में कोई था ही नहीं। सारा गांव उपदेश सुनने गांव के बाहर इक_ा हुआ था। चारों ने सोचा: यह अवसर चूक जाने जैसा नहीं हैं। वे उपासिका के घर में पहुंच गए बड़ा गिरोह लेकर। ठीक संख्या बौद्ध-ग्रथों में हैं- एक हजार चालीस। क्योंकि उपासिका महाधनी थी। उसके पास इतना धन था कि ढोते-ढोते दिन लग जाते, तो वे ले जा सकते थे।
तो एक हजार चोर इक_े उसके घर पर हमला बोल दिए। सब तरफ से दीवालें तोडक़र अंदर घुस गए। सिर्फ एक दासी घर में छूटी थी। उसने इतना बड़ा गिरोह, देखा,तो भागी। वे चोर सोना-चांदी, हीरे-जवाहरात ढो-ढोकर बाहर ले जाने लगे। दासी ने जाकर उपासिका को कहा।
दासी घबड़ायी होगी। पसीना-पसीना हो रही होगी। सब लुटा जाता है। लेकिन उपासिका हंसी और बोली:जा,चोरों की जो इच्छा हो, सो ले जावें, तू उपदेश सुनने में विघ्र न डाल।
इस देश ने एक ऐसी संपदा भी जानी है,जिसके सामने और सब संपदाएं फीकी हो जाती हैं। इस देश को ऐसे हीरों का पता हैं, जिनके सामने तुम्हारे हीरे कंकड़-पत्थर हैं। इस देश ने ध्यान का धन जाना। और जिसने ध्यान का धन जान लिया, उसके लिए फिर ओर कोई धन नहीं है सिर्फ ध्यान ही धन है। इस देश में समाधि जानी। और जिसने समाधि जानी, वह सम्राट हुआ, उसे असली साम्राज्य मिला।
तुम सम्राट भी हो जाओ संसार में, तो भिखारी ही रहोगे। और तुम भीतर के जगत में भिखारी भी होओ,तो सम्राट हो जाओगे। ऐसा अद्भुत नियम है।
उस क्षण उपासिका रस-विमुग्ध थी। उसका बेटा लौटा था बुद्ध के पास होकर। बुद्ध की थोड़ी श्वास लाया था। बुद्ध का थोड़ा रंग लाया था, बुद्ध का थोड़ा ढंग लाया था। वह जो कह रहा था उसमें बुद्ध के वचनों की भनकी थी। वह लवलीन होकर सुनती थी। वह पूरी डूबी थी। वह किसी और लोक की तरफ आंख खोले बैठी थी। उसे किसी विराट सत्य के दर्शन हे रहे थे। उसे एक-एक शब्द हृदय में जा रहा था और रूपांतरित कर रहा था। उसके भीतर बड़ी रासायनिक प्रक्रिया हो रही थी। वह देह से आत्मा की तरफ मुड़ रही थी। वह बाहर से भीतर की तरफ मुड़ रही थी।
उसने कहा: जा, चारों की जो इच्छा हो, सो ले जावें। तू उपदेश सुनने में विघ्र न डाल। तो ऐसा तो कोई तभी कह सकता है,जब विराट मिलने लगे।
और मैं तुमसे कहता हूं:क्षुद्र को छोडऩा मत: विराट को पहले पाने में लगो, क्षुद्र अपने से छूट जाएगा। तुमसे मैं नहीं कहता कि तुम घर-द्वार छोड़ो। मैं तुमसे मंदिर तलाशने को कहता हूं। मैं तुमसे नहीं कहता कि तुम धन-दौलत छोड़ो। मैं तुमसे ध्यान खोजने को कहता हूं। जिसको ध्यान मिल जाएगा, धन दौलत छूट ही गयी। छूटी न छूटी -अर्थहीन है बात। उसका कोई मूल्य ही न रहा।
आमतौर से तुमसे उलटी बात कही जाती है। तुमसे कहा गया है कि तुम पहले संसार छोड़ो, तब तुम परमात्मा को पा सकोगे। मैं तुमसे कहता हूं: तुम संसार छोड़ोगे, तुम और दुखी हो जाओगे, जितने तुम दुखी अभी हो। परमात्मस नहीं मिलेगा। लेकिन अगर तुम परमात्मा को पा लो, तो संसार छूट जाएगा।
अंधेरे से मत लड़ो,दीए को जलाओं । अंधेरे से लड़ोगे दीया नहीं जलेगा। अंधेरे से लड़ोगे-हारोगे,थकोगे, बड़े परेशान हो जाओगे। ऐसे ही तुम्हारे सौ में से निन्यानवे महात्माओं की दशा है। और परेशान हो गए। तुमसे ज्यादा परेशान है।
तुम्हें यह बात दिखायी नहीं पड़ती कि कभी-कभी साधारण गृहस्थ के चेहरे पर तो कुछ आंनद का भाव भी दिखाई पड़ता है,तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासियों के चेहरे पर तो आंनद का भाव बिलकूल खो गया है। एकदम जड़ता है। एकदम गहरी उदासी। सब जैसे मरूस्थल हो गया। क्या कारण हैं?
बातें तो करते हैं कि सब छोड़ देने से आंनद मिलेगा। मिला कहां? तुमने किसी जैन मुनि को नाचते देखा हैं? प्रसन्न देखा हैं? आनंदित देखा हैं? छोडक़र मिला क्या हैं?
छोडऩे से मिलने का कोई संबंध नहीं है। बात उलटी है: मिल जाए तो छूट जाता है। दीया जलाओ और अंधेरा अपने से नष्ट हो जाता हैं।
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Jeewan Aadhar Editor Desk