सच्चा संत वही है जो किसी क्षण परमात्मा को नहीं भूलता और प्रेम पाश से हृदय के साथ परमात्मा को बांधे रखता है। अन्तिम उपदेश देते हुए श्रीकृष्ण ने कहा- यह मानव तन मिलना बड़ा दुर्लभ हैं,बड़ा कठिन है। चौरासी लाख जीव योनियाँ में चक्कर खाकर यह मानव-तन मिला हैं।
शरीर रूपी नौका चाहे कितनी भी सुन्दर क्यों न हो जब तक सुघड़ नाविक अर्थात् इस नौका का सन्मार्ग पर चलाने वाले ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरू नहीं मिलेंगे तब तक यह नौका संसाररूपी सागर से पार नहीं होगी। शरीररूपी नौका में चाहे चार वेद पढ़ा हुआ ब्रह्मण सवार हैं, चाहे अरबपति जीव सवार है, केवट के बिना नौका आपको मंजिल तक नहीं पहुंचायेगी।
इस संसार सागर में काम,क्रोध,मान ,लोभ,राग द्वेषरूपी बड़े बड़े मगरमच्छ विद्यमान हैं जो जीव को निगलने के लिए हर क्षण मुँह बाये रहते हैं बड़े बड़े ज्ञानियों को भी शत्रु नहीं छोड़ते इसीलिए जो माया को पार करना चाहता है,उसे स्वतन्त्र रहने की अपेक्षा किसी सच्चे सन्त सद्गुरू की आज्ञा में रहना चाहिए। अत:सर्वप्रथम ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरू को अपनाओ और अपने मन मंदिर में उनको विराजित करके हर क्षण उनकी स्मृति में व्यतीत करो।