एक बार एक संत अपने शिष्यों के साथ एक गाँव में पहुँचे। वहाँ उन्होंने देखा—लोग बहुत मेहनती थे, लेकिन फिर भी गरीबी ने पैर पसार रखें थे। पूछने पर कहते— “हमारा भाग्य ऐसा ही है, इसमें क्या बदलेगा?”
संत मुस्कुराए और एक कथा सुनाने लगे— एक राजा ने अपने महल में एक विशाल हाथी बाँध रखा था। वह बहुत बलवान था, पर उसे बस एक छोटी सी रस्सी से बाँधा गया था।
एक यात्री ने आश्चर्य से पूछा— “राजन! इतना बड़ा हाथी इतनी पतली रस्सी से क्यों नहीं भागता?”
राजा बोला— “जब वह छोटा था, हमने इसी रस्सी से बाँधा था। तब उसने कई बार कोशिश की, लेकिन छूट नहीं सका। उसे विश्वास हो गया कि यह रस्सी उससे मज़बूत है। अब जब वह बड़ा हो गया है, तो भी वही मान्यता उसके मन में जकड़ी हुई है कि वह नहीं छूट सकता। इसलिए कोशिश ही नहीं करता।”
संत बोले — “यही हाल मनुष्य का है। हमारी असली जंजीर शरीर पर नहीं, मन पर है। हम मान लेते हैं कि हम कुछ नहीं कर सकते, कि हालात, समाज या भाग्य हमें बाँधकर रखे हैं। पर सच्चाई यह है कि जंजीर अब कमजोर है—बस विश्वास टूटना चाहिए।”
उन्होंने ग्रामीणों से मेहनत का तरीका बदलने को कहा। बुद्धि का इस्तेमाल करके मेहनत करने की शिक्षा दी। इसके बाद ग्रामीणों की किस्मत बदलने लगी और वहां पर समृद्धि आने लगी।
संत ने कहा — “मानसिक गुलामी वही है जब तुम अपने विचारों को किसी और की सोच के हवाले कर दो।” “जो सोचने की हिम्मत रखता है, वही स्वतंत्र होता है।”
उन्होंने आगे कहा — “अपने भीतर के ‘नहीं हो सकता’ को हर दिन चुनौती दो। जैसे ही तुम यह कहने लगो — ‘क्यों नहीं हो सकता?’ उसी क्षण मानसिक गुलामी की दीवार गिरने लगती है।”
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, “मन की बेड़ियाँ लोहे की बेड़ियों से भारी होती हैं, उन्हें तोड़ो आत्मविश्वास से, क्योंकि असली आज़ादी भीतर से शुरू होती है।”







