धर्म

स्वामी राजदास : मन का बदलाव

आकाश को ध्यान से देखें तो लगता है कि थोड़ी दूर ही आकाश की सीमा-रेखा है, क्षितिज है। लेकिन जैसे ही वहां पहुंचते हैं तो प्रतीत होता है कि आकाश तो अभी और दूर है। हम आगे बढ़ते जाते हैं लेकिन क्षितिज नहीं मिलता। हमारा मन भी ऐसा ही है। वह भी इसी तरह विस्तार ले लेता है। आसमान की तरह ही फैलाव मन का स्वभाव है। इसकी हर सीमा प्रवंचना है। हमारे पैर तो एक ही ओर चलते हैं लेकिन मन चंहुओर घूमता है। हालांकि उसे जाना हमारे अंत:स्थल की ओर ही होता है।

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संसार के समस्त जीवों में मानव की श्रेष्ठता और प्रभु-प्रदत्त वरदानों में मानव-मन की सर्वोच्चता सर्वमान्य है। सामान्यत: मन का अर्थ है प्राणियों की वह शक्ति जिसके द्वारा विचार, अपना-पराया, सुख-दुख और संकल्प की अनुभूति होती है। चंचलता और स्वच्छंदता मन की नैसर्गिक विशेषता है। दार्शनिकों का मानना है कि मानव-मन उस जलाशय की तरह है, जिसका स्थिर जल हवा के प्रभाव से लहर बन कर शीघ्र गतिमान हो जाता है। जिसने मन को अपने अधीन बना लिया, वह मनोनिग्रह में कदम रखने में सक्षम हो सकता है। क्योंकि जिसका मन नियंत्रित है वही मानसिक रोगों और शारीरिक पीड़ाओं से मुक्त रहेगा। मन को इसी सीमा-रेखा में बांधने के लिए संसार त्याग कर साधु-संत बन जाना एक उपाय माना गया है। लेकिन सांसारिक बाना छोड़कर साधु बनने मात्र बाहर ही परिवर्तन होता है। इस बाहरी परिवर्तन की बदौलत बाहरी शत्रुओं से रक्षा करना थोड़ा आसान हो जाता है। परंतु अपने भीतर के शत्रुओं से स्वयं को बचाने के लिए भीतर में भी परिवर्तन चाहिए। बाहर से परिवर्तन न भी हो तो कोई खास हर्ज नहीं है, मगर भीतर का परिवर्तन जरूरी है।

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भीतर का बदलाव बिल्कुल उसी जैसा, जैसे कोई सिक्का मात्र मुहर लगने पर अपनी कीमत पर बिकता है। यह उसका बाहरी रूप है। लेकिन सिक्के की धातु भी उतनी ही कीमत की हो जितनी कीमत मुहर लगने के कारण है, तो मुहर दिखाई ना देने पर भी बाजार मूल्य उसका उतना ही होगा, जितना बाहरी मूल्य है। यही आंतरिक परिवर्तन है। यह होते ही आंतरिक और बाहरी मूल्य समान हो जाते हैं।

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अपने भीतर से जिसको हम छोड़ रहे हैं, उससे हमारा संबंध छूटने के साथ उसकी ओर कोई आसक्ति, आशा-तृष्णा हमारे अंदर ना जागे। वस्तुत: यही आंतरिक परिवर्तन है। अगर थोड़ी-सी भी आशा-तृष्णा बाकी रह गई तो यह सिर्फ खूंटा बदलने की तरह ही है। बाहर से साधु का लबादा जरूर दिखेगा लेकिन साधुता का संगीत गायब रहेगा। हाथ में एकतारा जरूर होगा पर सुर नहीं सजेंगे। हिरन की तरह हम दुनिया के वन में दौड़-धूप करते, भटकते रह जाएंगे, मिलेगा कुछ नहीं।
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