हे ब्रह्माण्ड और वेदों के पालन करने वाले प्रभु सर्वसामथ्र्ययुक्त सर्वशक्तिमान् आपने अपनी व्याप्ति से संसार के सब अवययों को व्याप्त रखा है। उस आपका जो व्यापक पवित्र स्वरूप है वह ब्रह्मचर्य,सत्यभाषण,शम,दम,योगाभ्यास,जितेन्द्रिय, सत्संगादि तपश्चय्र्या से रहित जो अपवित्र आत्मा अन्तकरणयुक्त है। वह उस तेरे स्वरूप को प्राप्त नहीं होता और जो पूर्वोक्त तप से शुद्ध हैं। वे ही इस तप का आचरण करते हुए उस तेरे शुद्धरूप को अच्छे प्रकार प्राप्त होतें हैं।
जो प्रकाशस्वरूप परमेश्वर की सृष्टि में विस्तृत पवित्राचरणरूप तप करते हैं वे ही परमात्मा को प्राप्त होने में योग्य होते हैं।
अब विचार कीजिये कि रामानुजीयादि लोग इस मंत्र से चक्राकित होना सिद्ध क्योंकर करते हैं? भला कहिए वे विद्वान् थे वा अविद्वान? जो कहो कि विद्वान् थे तो ऐसा असम्भावित अर्थ इस मन्त्र का क्यों करते ? क्योंकि इस मंत्र में अतप्ततनू: शब्द है किन्तु अतप्तभुजैकदेश: नहीं। पुन: अतप्ततनू: यह नखशिखाग्रपर्यन्त समुदाय अर्थ है। इस प्रमाण करके अग्रि ही से तपाना चक्रडित लोग स्वीकार करें तो अपने-अपने शरीर को भाड़ में झोंक के सब शरीर जलावें तो भी इस मन्त्र के अर्थ से विरूद्ध है क्योंकि इस मंत्र के अर्थ से विरूद्ध है क्योंकि इस मन्त्र में सत्यभाषाणादि पवित्र कर्म करना तप लिया है।
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