एक वार काठियावाड़ में किसी काठी अर्थात् जिस का दादाखाचर गड्ढे का भूमिया था। उस को शिष्यों ने कहा कि तुम चतुर्भुज नारायण का दर्शन करना चाहो तो हम सहजानन्द जी से प्रार्थना करें? उस ने कहा बहुत अच्छी बात हैं। वह भोला आदमी था। एक कोठरी में सहजानन्द ने शिर पर मुकुट धारण कर और शंख चक्र अपने हाथ में ऊपर को धारण किया और एक दूसरा आदमी उसके पीछे खड़ा रह कर गद्दा पह्म अपने हाथ में लेकर सहजानन्द की बगल में से आगे को हाथ निकाल चतुर्भुज के तुल्य बन ठन गये।
दादाखाचर से उन चेलों ने कहा कि एक बार आंख उठा कर देख के फिर आंख मींच लेना और झट इधर को चले आना। जो बहुत देखोगे तो नारायण कोपर करेंगे अर्थात् चेलों के मन में तो यह था कि हमारे कपट की परीक्षा न कर लेवे। उस को ले गये। वह सहजानन्द कलाबूत और चलकते हुए रेश्मी कपड़े धारण किये था। अन्धेरी कोठरी में खड़ा था। उस के चेलों ने एकदम लालटेन से कोठरी की ओर उजाला किया। दादाखाचर ने देखा तो चतुर्भुज मूर्ति दीखी, फिर झट दीपक को आड़ में कर दिया। वे सब नीचे गिर, नमस्कार कर दूसरी ओर चले आये और उसी समय बीच में बातें कीं कि तुम्हारा धन्य भाग्य है। अब तुम महाराज के चेले हो जाओ। उस ने कहा बहुत अच्छी बात हैं। जब लों फिर के दूसरे में गये तब लों दूसरे वस्त्र धारण करके सहजानन्द गद्दी पर बैठा मिला। तब चेलों ने कहा कि देखो अब दूसरा रूप धारण कर के यहां विराजमान हैं। वह दादाखाचर इन के जाल में फंस गया। वहीं से उन के मत की जड़ जमी क्योंकि वह एक बड़ा भूमिया था। वहीं अपनी जड़ जमा ली। पुन: इधर उधर घूमता रहा। सब को उपदेश करता था। बहुतों को साधु भी बनाता था। कभी-कभी किसी साधु की कण्ठ नाड़ी को मल मूर्छित भी कर देता था और सब से कहता था कि हमने इन को समाधि चढ़ा दी है। ऐसी-ऐसी धूत्र्तता में काठियावाड़ के भोले भोले लोग उसके पेच में फंस गये। जब वह मर गया तब उस के चेलों ने बहुत सा पाखण्ड फैलाया।
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