धर्म

ओशो-संतो मगन भया मन मेरा

मैंने सुना है, एक बिल्ली इंग्लैंड की यात्रा को गयी। जब लौट कर आयी तो बिाल्लियों ने उसे घेर लिया और कहा—क्या देखा, इंग्लैंड में क्या—क्या देखा? रानी के दर्शन किये कि नहीं? उसका सिंहासन देखा कि नहीं? कोहनूर—जड़ा उसका मुकुट देखा कि नहीं?
और उसने कहा—गयी थी देखने, देख नहीं पायी, क्योंकि रानी सिंहासन पर बैठी थी, सिंहासन सुंदर था, मुकुट भी बड़ा प्यारा था, मुकुट में हीरा भी चमक रहा था, मगर मैं मुश्किल में पड़ गयी, क्योंकि एक चूहा सिंहासन के नीचे बैठा था। उस चूहे को देखने के कारण मैं कुछ और देख नहीं पाई। मैं तो चूहे को ही देखती रही—बड़ा प्यारा चूहा था। बड़ा गजब का चूहा था। एकदम लार टपकने लगी थी।
अब बिल्ली अगर इंग्लैंड जाए, तो और देखे भी क्या? कोहनूर भी पड़ा रहे और उसीके पास एक चूहा बैठा हो, तो बिल्ली क्या देखे? भाड़ में जाए कोहनूर! कोहनूर का करोगे क्या? खाओगे, पीओगे कि पहनोगे? जब चूहा मौजूद हो तो कौन कोहनूर की फिक्र करता है!
ऋषि अपनी भाषा बोलते हैं, हम अपनी भाषा समझते हैं। वहीं चूक हो जाती है। जब ऋषि ने कहा—सब सुखी हों, तो ऋषि यह कह रहा है कि जैसा मैं सुखी हुआ, ऐसे सब हों। तुमने सुना, तुमने कहा कि ठीक है, तो ऋषि यह कह रहे हैं कि कार मिले, बड़ा मकान मिले, कि सुंदर स्त्री मिले—तुम अपना सुख सुनने लगे,तुम अपना सुख समझने लगे। ऋषि तो अपने सुख की बात कर रहा है।
ऋषियों का सुख क्या है? कि सबको परमात्मा मिले। वहीं तो पहुँच कर सारे लोग दुख के पार होते हैं। इस संसार में तो दुख—ही—दुख है। मगर तुम्हें दुखी होने की कोई आवश्यकता नहीं है, अनिवार्यता नहीं है, तुम सुखी हो सकते हो। मैं सुखी हूँ और तुमसे कहता हूँ कि तुम भी ऐसे हो सकते हो—मैं गवाह हूँ’। सारे ऋषि गवाह हैं। लेकिन तुम तो ऋषियों के पास भी जाते हो तो आशीर्वाद वही माँगते हो कि चूहा मिल जाए।

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