साहित्य

ओशो- सतगुरु मिलै त ऊबरै

ये जिनको तुम योगी समझते हो , ये सब सरकसों में भर्ती करने योग्य है । इनका कोई भी मूल्य नहीं । अच्छा है , शरीर के स्वास्थ के लिए ठीक है , पर इससे कुछ परमात्मा के मिलने का लेना-देना नहीं है । परमात्मा से कौन मिलता है । जो स्वस्थ है । जो स्वयं में स्थित है । जो वर्तमान में आरूढ़ है । क्योंकि परमात्मा का द्वार वर्तमान है । अतीत है नहीं अब , न हो चुका ; भविष्य अभी आया नहीं , वह भी नहीं है । है क्या ? यह क्षण ! इस क्षण से ही तुम प्रवेश करो तो परमात्मा में पहुंच सकते हो । क्योंकि यही क्षण वास्तविक है , अस्तित्ववान है । और परमात्मा है महाअस्तित्व । इसी क्षण के द्वार से सरको और परमात्मा में पहुंच जाओगे । ध्यान की सारी प्रक्रियाएं इसी क्षण में उतर जाने की प्रक्रियाएं हैं । जब चित्त में कोई विचार नहीं होता , तो स्वभावतः समय मिट जाता है । क्योंकि विचार या तो अतीत के होते हैं या भविष्य के होते हैं । वर्तमान का तो विचार कभी होता ही नहीं । तुम करना भी चाहो तो न कर सकोगे ; बैठ कर कोशिश करना । वर्तमान का कोई विचार संभव नहीं है ; वह असंभावना है । तुम जब भी विचार करोगे तो अतीत का होगा । यह भी हो सकता है कि सामने गुलाब का फूल खिला है और जैसे ही तुमने कहा , ‘ अहा ‘ कितना सुंदर फूल ! ‘ यह अतीत हो गया । यह तुम्हारी जो प्रतीति हुई थी सौंदर्य की , उसकी स्मृति है अब । यह अतीत हो गया , यह अब वर्तमान न रहा । तुम बोले कि अतीत में गये , या भविष्य में गये । विचार उठा , कि अतीत या भविष्य । तुम डोल गये दायें या बायें , मध्य खो गया । मध्य तो निर्विचार में होता है । ध्यान का अर्थ होता है : चुप , मौन , कोई विचार नहीं उठता , कोई विचार की तरंग नहीं उठती , झील शांत है …… । यह शांत झील वर्तमान से जोड़ देती है । और जो वर्तमान से जुडा़ , वही योगी है । ध्यानी योगी है । और जो वर्तमान से जुड़ गया , वह परमात्मा से जुड़ गया ; क्योंकि वर्तमान परमात्मा का द्वार है । अगर तुम्हारा जीवन सहज हो जाये तो बस ठहर गए , आसन लग गया । यही असली आसन है । पालथी मारकर और सिद्धासन लगाना असली आसन नहीं है । वह तो कोई भी लगा ले । वह तो कवायद है । व्यायाम है , अच्छा है ; करो तो शरीर के लिए स्वास्थ्य कर है ; लेकिन उससे कोई आत्मा नहीं मिल जायेगी । सहजता में , निजता में जो आसन लग जाता है , तो आत्मा का अनुभव शुरू होता है ।

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