साहित्य

ओशो : काहे होत अधीर

जाना है कहीं तो अपने भीतर जाना है। और अपने भीतर जाना है, यह कहना सिर्फ भाषा के कारण। भीतर जाने का एक ही अर्थ होता है—बाहर जाना रुक जाए, बस। भीतर जाने को न कोई स्थान है कि जहां पैर उठा सको, कदम उठा सको। भीतर तो तुम हो ही, वहां जाना क्यों है? वहां से तो तुम कभी इंच भर हटे नहीं हो। इसलिए बाहर जाना बंद हो जाए कि आदमी भीतर पहुंच गया। भीतर जाने का अर्थ इतना ही है—बाहर जाने की दौड़ बंद हो गई, बस तुम अपने को भीतर पाओगे। तुम विराजमान पाओगे अपने को परम प्रभु की गोद में।
नैन दिए हरि—देखन को, पलटू सब में प्रभु देत दिखाई।
आंखें तो दी थीं प्रभु को देखने को। और जिन्होंने आंखों का ठीक उपयोग किया उन्हें अपने भीतर ही नहीं दिखाई पड़ा, सबके भीतर दिखाई पड़ा। लेकिन तुम्हारी आंखों में क्या दिखाई पड़ता है? पत्थर दिखाई पड़ते हैं, पहाड़ दिखाई पड़ते हैं, रुपया—पैसा दिखाई पड़ता है, हीरे—जवाहरात दिखाई पड़ते हैं, लोग दिखाई पड़ते हैं; परमात्मा भर नहीं दिखाई पड़ता! आंखों का तुमने ठीक उपयोग ही नहीं किया। तुमने आंखों को बाहर पर अटका दिया है। तुमने आंखों को बहिर्गामी बना दिया है।
आंखों को बंद करो और देखो! आंख खोल—खोल कर तो बहुत देखा, अब आंख बंद करो और देखो। आंख बंद करके देखने का नाम ध्यान है। और आंख बंद करके जिसको दिख जाए, उसको समाधि। आंख खोल कर फिर दिखाई पड़ेगा, पहले आंख बंद करके दिखाई पड़ जाए। अपने में जिसने उसको पहचान लिया, उसे फिर सब में उसकी पहचान हो जाती है। बस पहली पहचान कठिन है, बाकी तो सब पहचान बड़ी सरल है, बड़ी सुगम है।
नैन दिए हरि—देखन को, पलटू सब में प्रभु देत दिखाई।
लेकिन बहिर्यात्रा छोड़नी होगी, अंतर्यात्रा करनी होगी।

Related posts

ओशो- सतगुरु मिलै त ऊबरै

लॉकडाउन ने बनाया न्यूटन को वैज्ञानिक—जानें पूरी कहानी

आनंद ‘परम’- ममता का उपवास…