धर्म

परमहंस संत शिरोमणि स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से—137

एक बार पांडवों की ओर से श्रीकृष्ण दूत बनकर कौरवों की राजधानी हस्तिनापुर पहुंचे। वहां उनका राजसी सम्मान हुआ। दुर्योधन ने उन्हें भोजन के लिए निमंत्रित किया गया। उन्होंने निमंत्रण अस्वीकार कर दिया, तो दुर्योधन बोला, ‘जनार्दन! आपके लिए भोजन, वस्त्र तथा शय्या आदि जो वस्तुएं प्रस्तुत की गई हैं, आपने उन्हें ग्रहण क्यों नहीं किया?’

श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया, ‘भोजन के लिए दो भाव- दया और प्रीति काम करते हैं। दया दीन को दिखाई जाती है, सो दीन तो हम हैं नहीं। आप अपने ही भाइयों से द्वेष करते हैं, इस लिए आपमें प्रीति का भी भाव नहीं। जहां दया और प्रीति नहीं उसका अन्न कभी नहीं खाना चाहिए।’ श्रीकृष्ण ने दुर्योधन के 56 भोग को त्यागकर विधुर के घर जाकर केले के छिलके खाएं।

दुर्योधन का भोजन निमंत्रण त्यागकर श्रीकृष्ण सीधे विधुर के घर पहुंचे। वहां विधुर की पत्नी से कहा, बहुत लगी है। अभी जो है घर में तुंरत ले आओ। श्रीकृष्ण को घर पर अचानक आया देख विधुर की पत्नी भावभिवोर हो उठी। वो तुरंत अंदर से केले उठा लाई। श्रीकृष्ण के पास बैठकर उनको केले छिलकर खिलाने लगी। लेकिन भाव में इतनी डूब गई वो केले को छिलकर गिरी को जमीन पर गिराती गई और छिलके श्रीकृष्ण को खिलाती गई। श्रीकृष्ण बड़े चाव से छिलके खाते गए।

कुछ समय में विधुर घर पहुंचे तो देखा कि उनकी पत्नी श्रीकृष्ण को छिलके खिला रही है और केले की गिरी को जमीन पर फेंक रही है। विधुर ने तुरंत पत्नी का हाथ पकड़कर रोका। और बोले, क्या मूर्खता कर रही हो। जगतपति को केले के छिलके खिला रही हो। इतने में ही श्रीकृष्ण बाले उठे—विधुर केले का भूखा कौन है?? मैं तो भाव,प्रेम और श्रद्धा का भूखा हूं। भाव से जो मुझे कुछ अर्पित करे मैं उसी का हूं।

धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, श्रीकृष्ण की इस लीला से संदेश मिलता है कि भगवान केवल भाव के भूखे होते है। वो मानव जगत को ज्ञान दे रहे है कि भोजन करवाते समय अहंकार नहीं दया और प्रीति का भाव होना चाहिए। भगवान को जो सवामधि चढ़ाते है, वो नादान है। भगवान सवामणि का भूखा नहीं। भगवान को तो भाव से खिलाया हुआ एक दाना ही काफी है। इसलिए सदा अपनी रसोई में स्वयं खाना बनाएं और वो भी भाव के साथ। मेहमान को खाना घर पर ही भाव के साथ बनाकर खिलाना चाहिए।

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