धर्म

परमहंस संत शिरोमणि स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से—170

हस्तिनापुर के राजकुमार पांडव और कौरव गुरुकुल गए थे। वे गुरु द्रोण के आश्रम में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। वह प्रतिदिन नियमबद्ध तरीके से जीवन जी रहे थे। ब्रह्म मुहूर्त में उठाना, शौच इत्यादि से निवृत्त होकर व्यायाम करना। फिर स्नान करके हवन पूजन करना। भोजन प्राप्त कर, पढ़ाई करना। पढ़ाई के बाद, गुरुकुल में विभिन्न प्रकार के कार्य करना। सांझ से पहले, क्रीडा स्थल पर जाकर पहले युद्ध कौशल सीखना और फिर क्रीड़ा करना। इसके उपरांत पढ़ाई करना। फिर भोजन कर सो जाना। ऐसे ही उनकी दिनचर्या चल रही थी।

एक बार की बात है। द्रोणाचार्य अपने शिष्यों को क्रोध का त्याग करने का पाठ पढ़ा रहे थे। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, “जीवन में क्रोध हमेशा हमें गलत मार्ग पर ले जाता है और हम अधर्म कर बैठते हैं। इसलिए, हमें सदैव क्रोध का त्याग करना चाहिए। यदि कोई राजा या योद्धा क्रोध में गलत निर्णय ले ले, तो इस अधर्म को ठीक नहीं किया जा सकता। यदि कोई ऐसे पद पर बैठा मनुष्य है, जिसके निर्णय से बहुजन के जीवन पर असर पड़ता है। तो ऐसे मनुष्य को सदैव के लिए क्रोध का परित्याग कर देना चाहिए।

क्रोध का त्याग इतना आसान भी नहीं है इसीलिए हमें निरंतर प्रयासरत रहना चाहिए। क्रोध त्याग को कभी भूलना नहीं चाहिए, अन्यथा कभी भी वह हमारे माथे पर सवार हो सकता है। क्रोध और अहंकार लगभग साथ—साथ चलते हैं। क्रोध अहंकार को पोषित करने के लिए गलत कार्य करवाता है और वही अहंकार क्रोध को बढ़ावा देता है। क्रोध अधर्म करवाता है और फिर एक अधर्म दूसरे अधर्म को जन्म देता है। अतः क्रोध का त्याग करना अति आवश्यक है।

अगले दिन की कक्षा में गुरु द्रोण ने अपने शिष्यों को पिछले दिन पढ़ाई गए पाठ को सुनाने को कहा। सभी कौरवों ने सुनाया। फिर युधिष्ठिर को छोड़कर सभी पांडवों ने भी सुना दिया। परंतु युधिष्ठिर नहीं सुना पाए। जब द्रोणाचार्य ने उनसे पूछा कि उन्हें पाठ क्यों नहीं स्मरण तो उन्होंने कहा उन्हें थोड़ा और समय चाहिए। दो-तीन दिन तक युद्धिष्ठिर गुरुजी को यही उत्तर देते रहे। चौथे दिन जब गुरु जी ने पूछा और युधिष्ठिर ने यही उत्तर दिया, तब गुरु द्रोण ने युधिष्ठिर को एक थप्पड़ मार दिया। युधिष्ठिर कुछ देर तक शांत खड़े रहे। फिर अपने हाथ जोड़कर गुरुजी से कहा, “गुरुजी! क्या मैं आपको पाठ सुनाऊं?” द्रोणाचार्य ने गरजते हुए कहा, “सुनाओ”। तभी युधिष्ठिर ने हाथ जोड़े हुए ही पूरा पाठ सुना दिया।

युधिष्ठिर के मुख से पाठ वैसा का वैसा सुन, गुरु द्रोणाचार्य सहित सब आश्चर्यचकित हो गए। तब गुरु द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर से पूछा, “पुत्र जब तुम्हें स्मरण था, तब तुम ने दंड से पहले क्यों नहीं सुनाया?” गुरु द्रोण का प्रश्न सुनकर युधिष्ठिर ने उत्तर दिया, “गुरु जी! पाठ कंठस्थ होना और स्मरण रहने में मुझे अंतर प्रतीत होता है। पाठ मुझे कंठस्थ तो था। परंतु, सदैव आपकी सिखाई हुई बात स्मरण रहेगी या नहीं? इस पर मुझे संदेह था। परंतु अब मैं समझ गया कि मुझे आपकी बात स्मरण भी रहेगी। इसीलिए, मैंने आपको पाठ सुना दिया। गुरु द्रोण ने युधिष्ठिर को गले से लगा लिया और कहा, “पुत्र! इस रास्ते पर चलोगे तो धर्मराज ही बनोगे और धर्मराज राजा, प्रजा का सौभाग्य होता है।”

धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, गुरु वाणी को याद तो सभी कर सकते हैं लेकिन गुरुवाणी पर चलने का साहस बहुत कम लोगों में होता है। जो गुरुवाणी पर चलते हैं, वही असली शिष्य होते हैं और वे ही आगे चलकर इतिहास रचते है।

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