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इंसान का अहंकारी होना जीवन की बड़ी विसंगति है। मानव चाहे साधारण हो या कोई बड़ा ऋषि-मुनि, कम या अधिक अहंकार सब में होता है। यह ऐसी मनोग्रंथि है जो व्यक्ति, परिवार, समाज एवं राष्ट्र को नष्ट कर देती है। हमने कुछ ऐसी अवधारणाएं एवं मान्यताएं बना ली हैं कि चाहकर भी इससे मुक्त नहीं हो पाते हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ-जीवन की इन चार विसंगतियों का जनक अहंकार ही है। अहंकार से मुक्त होना कोई आसान काम नहीं है। नौकरी की तलाश है..तो जीवन आधार बिजनेस प्रबंधक बने और 3300 रुपए से लेकर 70 हजार 900 रुपए मासिक की नौकरी पाए..अधिक जानकारी के लिए यहां क्लिक करे।
समस्या कैसी भी हो, कहीं भी हो, ज्यादातर तो अहंकार के ही कारण पैदा होती है। संबंधों में दुराव और कटुता का कारण भी अहंकार है। अहंकार का टकराव दो सहोदर भाइयों को कचहरी पहुंचा देता है। समाज में अनेक प्रसंग मिल जाएंगे कि बात कुछ भी नहीं थी, किंतु अहंकार ने सब बांटकर छिन्न-भिन्न कर दिया। भाइयों के बीच का विवाद उन्हीं तक सीमित नहीं रहता, बल्कि दोनों ओर पक्ष बन जाते हैं। परिवार का तनाव समाज को प्रभावित करता है और समाज से राष्ट्र प्रभावित होता है। स्वामी सुखबोधानंद ने कहा था, ‘अधिकतर लोग एक फूलदान में एक ओक वृक्ष की तरह होते हैं। फूलदान अहं की तरह होता है और उनका अस्तित्व ओक वृक्ष। उन्हें अपने आपको अहं तक सीमित नहीं करना चाहिए। उन्हें अपने निचले हिस्से को छोड़कर अपने ऊपरी हिस्से को फैलने देना चाहिए और अपने स्व को विस्तृत करना चाहिए।’
अहंकार शांत करने के लिए तीन बातें जरूरी हैं। धारणाओं का परिवर्तन, चिंतन और प्रयोग। आदमी ने यह अवधारणा बना रखी है कि अमुक जाति या कुल का आदमी बड़ा होता है, अमुक जाति का छोटा होता है। जातिवाद ने आज तक अहंकार को बढ़ावा देने का ही काम किया है। इस गलत अवधारणा ने समाज को कई वर्गों में बांट दिया और इससे विद्वेष, घृणा और संघर्ष पैदा हुए। इसी तरह व्यवसाय एवं परिवार को लेकर जो अवधारणाएं बनी हुई हैं, उन्हें बदलना भी बहुत जरूरी है। जैसा कि जोहान वॉन गोथे ने कहा था, ‘जिस पल कोई व्यक्ति खुद को पूर्णतः समर्पित कर देता है, ईश्वर भी उसके साथ चलता है।’
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अगर सुख-शांति से जीना है तो धारणाओं का परिवर्तन, सत्य विषयक चिंतन और प्रयोग, इन तीनों की मदद लेनी होगी। चिंतन की भूमिका से आगे बढ़कर उसे प्रयोगात्मक रूप देना पड़ेगा। ऐसा होता है तो हर तरह की मानवीय समस्या का समाधान जरूर होगा। जैसा कि रूमी ने कहा, ‘कोई रोटी फिर कभी गेहूं नहीं बनी, कोई पका हुआ अंगूर फिर कभी खट्टा फल नहीं बना। स्वयं को परिपक्व बनाएं और परिवर्तन के बुरे नतीजों के बारे में आशंकित न हों।’ इसलिए खुद बदलें, खुद रोशनी बनें और दूसरों को भी प्रकाशित करें। जो मान्यताएं जड़ होकर जम चुकी हैं, उन्हें आज ही नहीं, अभी से बदलना शुरू कर दें।
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