धर्म

परमहंस संत शिरोमणि स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से—172

भक्त प्रह्लाद के पोते और राजा विरोचन के पुत्र थे महाराज बलि। राजा विरोचन की पत्नी सुरोचना ने महाराज बलि को जन्म दिया था। विरोचन के बाद महाराज बलि ही दैत्यों के अधिपति हुए और उन्हे दैत्यराज बलि भी कहते हैं। एक बार की बात है, तब समुद्र मंथन के बाद देवगन बहुत शक्तिशाली हो गये थे। तब देवासुर संग्राम हुए। उस संग्राम में देवताओं द्वारा महाराज बलि और उनकी दैत्यों और असुरों वाली सेना का भी नाश हो गया।

उस युद्ध में इंद्र के वज्र द्वारा बलि की मृत्यु निश्चित हो गई थी। तब शुक्राचार्य जो की दैत्यगुरू थे, उन्होंने अपनी संजीवनी विद्या के द्वारा महाराज बलि के प्राण बचाये। अपने होश और प्राण शक्ति सँभालने के बाद दैत्यराज बलि ने गुरु शुक्राचार्य से पूछा “आचार्य मैं अपना राज्य, अपनी सेना और शक्ति वापस कैसे पा सकता हूँ?” तब इसके उत्तर में आचार्य ने कहा “हे पुत्र! तुम महाभिषेक विश्वजीत यज्ञ करो, इससे तुम्हे तुम्हारा हारा हुआ राज्य, सेना और शक्ति सभी पुनः प्राप्त हो जायेंगे। आचार्य की बातें सुन कर बलि, यज्ञ करने को तैयार हो गए।

आचार्य की देख रेख में यज्ञ आरम्भ हुआ। इस यज्ञ में अग्निदेव ने प्रकट होकर महाराज बलि को सोने का दिव्य रथ दिया, जिसमें चार घोड़े बंधे थे। वह रथ हवा की गति में दौड़ने की क्षमता रखता था। साथ ही साथ यज्ञ से बलि को दिव्य धनुष, बाणों से भरा तरकश और अभेद्द कवच प्राप्त हुआ। इसके साथ गुरु शुक्राचार्य ने बलि को भयंकर गर्जना करने वाला शंख और कभी न मुरझाने वाले पुष्पों की माला प्रदान की। अपने यज्ञ को पूर्ण कर महाराज बलि महाशक्तिशाली बन गए।

उन्होंने एक बार फिर से देवासुर संग्राम का आह्वाहन किया। इस संग्राम मे देवता बुरी तरह पराजित हुए। केवल इतना ही नहीं अपितु देवराज इंद्र को युद्धस्थल छोड़ कर भागना पड़ा। दैत्यराज बलि यह संग्राम जीत कर स्वर्ग के राजा बन गए। अपनी विजय और बल का अहंकार भी उनके अंदर जन्म लेने लगा जो पिछले हार के साथ सुप्त यानी सो गया था।

युद्ध के बाद उन्होंने अपने गुरु शुकराचार्य से कहा “हे आचार्य! आपके कहे का पालन कर मैंने अपना राज्य, बल और सेना वापस पा ली है, अब मैं आपसे कुछ और भी जानना चाहता हूँ“। यह सुन कर आचार्य ने कहा “निःसंकोच पूछो वत्स।”

बलि ने पूछा “अपने राज्य, बल और सेना को सुरक्षित रखने का क्या उपाय है?” तब दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने उनका मार्गदर्शन करते हुए कहा “हे मेरे प्रिय शिष्य! यदि तुम निरंतर यज्ञ करते रहो, तो कभी तुम्हारे बल में कमी नहीं आएगी। अपितु वृद्धि होगी और इससे तुम्हारी सेना सुरक्षित रहेगी, और इससे राज्य भी सुरक्षित रहेगा। मेरी एक और बात मानो तो, सदा गरीबों को और ब्राह्मणो को दान देते रहना, इससे जन्म लेने वाली ऊर्जा सदा तुम्हारे लिए हितकारी होगी।”

यह सब सुन कर दैत्यराज बलि ने, हाथ जोड़ कर आचार्य की बातों का समर्थन और सम्मान किया, और ऐसा आजीवन करने का संकल्प लिया। वो हमेशा चलने वाले यज्ञ करवाने लगे और सदैव दान के लिए तत्पर रहने लगे। दान का अहंकार हो गया उन्हें। शास्त्रों में कहा गया है, अहंकार तो अपने आप में बुरी चीज़ है, और जब अहंकार अच्छी चीज़ पर हो तो वह उसका भी नाश कर देती है। दैत्य लोगों को उनकी सुरक्षा प्रदान थी, इस वजह दैत्य सबको कष्ट पहुंचाने लगे।

उधर देव माता अदिति इस देवासुर संग्राम से हताश हो गईं थी। उनके पुत्र, निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे थे। उनके पुत्र देवराज इंद्र, देवगुरु वृहस्पति के कहे अनुसार घोर तपकर रहे थे। यह सब देख कर माता अदिति विचलित हो रहीं थी। फिर अपने पति महर्षि कश्यप के कहे अनुसार, वे भगवान विष्णु की अराधना करने लगी। उनकी अराधना से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें दर्शन दिये। प्रभु के दर्शन से, प्रसन्नचित होकर माता अदिति ने प्रभु से कहा “हे परमेश्वर! आप देवासुर संग्राम से अवगत हैं ही, मेरे पुत्रों की दुर्दशा देखिए और देवताओं की सहायता कीजिए। दैत्यों के प्रकोप से देवता के साथ आमजनो का जीवन भी संकट में है प्रभु।”

ऐसी विनती सुन प्रभु ने अदिति माता से कहा “हे देवमाता! मैं अपने भक्त से युद्ध नहीं कर सकता, ना ही उसकी मृत्यु का कारण बन सकता हूँ, परन्तु मैं आपके गर्भ से वामन अवतार लूंगा और देवताओं सहित सबका कल्याण करूँगा”। प्रभु के कहने अनुसार माता अदिति को एक पुत्र की प्राप्ति हुई। उनके पति महर्षि कश्यप ने ऋषियों के मन्त्रों उच्चारण द्वारा अपने पुत्र वामन का यज्ञोपित संस्कार करवाया। यज्ञोपवीत संस्कार के बाद भगवान वामन महाराज बलि की निरंतर चल रहे यज्ञ वाले यज्ञशाला की ओर चल पड़े।

वहाँ उपस्थित लोगों ने एक छोटा—सा ब्राह्मण बालक देखा, जिसके मुख पर अतुलनीय आभा थी। वह बालक का रूप बहुत ही मनमोहक था। उनके तेज से हर कोई प्रभावित हो रहा था। महाराज बलि और उनके यज्ञ में सम्मिलित गन उनके स्वागत में खड़े हो गये। महाराज बलि ने ब्राह्मण रुपी वामन भगवान को शाही आसन पर बैठाकर, उनके पैर धोए, फिर चरण स्पर्श कर प्रणाम किया। दैत्यराज बलि ने, ब्राह्मण बालक रूपी भगवान वामन से कहा– “भगवन! आपके आने से मैं धन्य हुआ, आपने इस यज्ञ में पधार कर यज्ञ की ऊर्जा में बढ़ोतरी की है। मैं आपको दान देने की इच्छा रखता हूँ, आप आदेश दें प्रभु”।

भगवान वामन देव ने कहा “आप दानवीर हैं राजन! आपकी बहुत प्रशंसा सुनी है। आप अन्न, धन, वस्त्र, सुविधा इत्यादि दान करने के लिए जाने जाते हैं। परन्तु मुझे ये सब नहीं चाहिए। मुझे केवल उतनी भूमि चाहिए जितनी भूमि मेरे तीन पग, यानी कदम में नप जाए। वहां उपस्थित लोग, ब्राह्मण बालक की मांग को सुन हंसने लगे। महाराज बलि भी अहंकार में आकर हंस पड़े और कहा “केवल तीन पग भूमि”। फिर हाथ जोड़ कर वामन देव से, और भी कुछ मांगने का आग्रह किया। परन्तु, वामन देव तीन पग भूमि पर अड़े रहे।

फिर जैसे ही अहंकार में अंधे महाराज बलि ने दान देने के लिए हामी भरी और आगे बढ़े, तब ही उनके गुरु शुक्राचार्य ने उनसे कहा “हे बलि! ये बालक ब्राह्मण कोई और नहीं स्वयं श्री हरी विष्णु हैं, सोच समझ कर संकल्प लेना”। उनकी बात सुनकर दैत्यराज बलि ने बालक ब्राह्मण को देखा और प्रभु की अनुभूति करते हुए बोले हे गुरुवर! मैं दानवीर हूं, मैं दान से पीछे नहीं हट सकता। वैसे भी सम्पूर्ण यज्ञ तो प्रभु की प्रसन्नता के लिए होती है, हर आहुति प्रभु को प्रसन्न करने के लिए दी जाती है, यदि आज प्रभु स्वयं यहाँ दान लेने आएं हैं तो इससे सौभाग्य पूर्ण और क्या होगा?

भगवान वामन सब सुन रहे थे। वामन देव से दैत्यराज बलि ने कहा “ब्राह्मण को दान के लिए आशवस्त कर, मैं अपनी बातों से विमुख नहीं हो सकता, आखिर मैं दानवीर हूँ। ऐसा तो आपने भी कहा है भगवन! इसलिए आप अपने पग बढ़ाएं, मैं आपको आपकी नापी हुई तीन पग भूमि दान करने का संकल्प लेता हूँ। संकल्प के साथ ही ब्राह्मण बालक रुपी वामन अवतार श्री हरी विष्णु ने विराट रूप धरा। लोग भयभीत होकर इधर उधर भागने लगे, यज्ञ में सम्मिलित जन हों या यज्ञद्रष्टा या फिर पशु सब ही भागने लगे। प्रभु ने एक पग में धरती और दूसरे पग में आकाश को नाप दिया और फिर तीसरे पग के लिए अपने पैर उठाये और बलि की ओर देखा।

तभी बलि ने हाथ जोड़ कर अपने घुटनों पर बैठ कर कहा “हे प्रभु! तीसरे पग में आप मुझे नाप लें और मुझ पर भी स्वामित्व स्थापित कर ले, यह रहा मेरा मस्तक आपकी सेवा में, आप मेरे मस्तक पर पग धरें। महाराज बलि का घमण्ड तो चूर हो ही गया था और प्रभु के सामने वो शरणागत हो चुके थे। परन्तु श्री हरी तो भक्तवत्सल हैं, अपने भक्त की भक्ति में बंध जाते हैं। बलि की भक्ति से प्रसन्न होकर, श्री हरी ने उन्हें अपने वास्तविक रूप में दर्शन दिया और कहा आज से तुम पाताल लोक के स्वामी हो।

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