एक आदमी बीमार है। तो औषधि की जरूरत तभी तक है जब तक वह बीमार है। ठीक से समझें तो आदमी को औषधि की जरूरत नहीं है, बीमारी को औषधि की जरूरत है, आदमी औषधि नहीं खाता, बीमारी औषधि खाती है। तो जैसे ही बीमारी समाप्त हो जाती हक्, औषधि व्यर्थ हो जाती है।
ज्ञान आपको नहीं चाहिए, आपके अज्ञान की बीमारी को काटने की औषधि मात्र है। लेकिन अनेक ऐसे बीमार हैं कि बीमारी तो छूट जाती है, औषधि पकड़ जाती है। और ध्यान रहे, बीमारी से छुड़ाना आसान है, औषधि से छुड़ाना मुश्किल है। अगर औषधि पकड़ जाए तो छुड़ाना बहुत मुश्किल है। क्योंकि औषधि दुश्मन नहीं मालूम होती, मित्र मालूम होती है। जो बीमारी शत्रु मालूम होती है, कठिन नहीं छूटना उससे। जो बिमारी मित्र मालूम होने लगी, उससे छुटना बहुत कठिन हो जाएगा। शत्रु से बचा जा सकता है, मित्र से बचना बहुत मुश्किल है। और ज्ञान ऐसा ही शत्रु की तरह दिखायी पड़ता है। क्योंकि अज्ञान के शत्रु को हटाता है, तोड़ता है।
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वेंदात का अर्थ है ज्ञान के प्रति सचेत रहना, उसे भी पकड़ नहीं लेना है। अज्ञान छूटता है तो आदमी ज्ञानी होता है। और जब ज्ञान भी छूटता है तब आदमी अनुभवी होता है। ज्ञानी तो अश्वलायन भी था। महर्षि था, अनुभवी नहीं था। अज्ञान की जगह उसने ज्ञान को पकड़ लिया था। अनुभव से उतना ही वंचित था जितना अज्ञानी वंचित होता है। इसीलिए तो पूछने आना पड़ा है उसे गुरू के पास।
तो गुरू जो कह रहा है, उसमें पहली बात कही है उन्होंने-परम तत्व को प्राप्त करने के अतत: वे ही अधिकारी होते है जो वेदांत में निहित विज्ञान का सुनिश्चत विज्ञान अर्थ जानते हैं। तो पहला शब्द तो वेदांत हम समझे। ज्ञान से मुक्ति।
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दूसरी बात हम समझें-वेदांत में निहित विज्ञान का सुनिश्चित अर्थ।
जब तक कोई अनुभव को उपलब्ध नहीं होता तब तक सभी अर्थ अनिश्चित होतें हैं। कितना ही आप जान लें, जानना आपको अनिश्चय के ऊपर नहीं ले जाता। बल्कि सच तो यह है कि जितना ज्यादा आप जानते हैं, उतना अनिश्चिय बढ़ जाता हैं। पंडितों की कठिनाई यही हैं, वे इतना जानते हैं कि निश्चय खो जाता है। अज्ञानी बड़े निश्चित होते है।
इसलिए दुनिया में अज्ञानी जितना उपद्रव करवाते हैं, उतने ज्ञानी नहीं करवा पाते। क्योंकि अज्ञानी इतना सुनिश्चित मालूम पड़ता है खुद के भीतर कि वह किसी भी चीज में जी-जान लगा देता है। अज्ञानी की बीमारी यह है कि वह किसी भी चीज में जी जान लगा सकता है, सुनिश्चत होता है। सुनिश्चत उसकी बिलकुल भ्रांत है। न जानने के कारण है।
ज्ञानी एकदम अनिश्चित हो जाता है। कुछ भी करने जाए तो हजार विकल्प उसे दिखायी पड़ते हैं। एक-एक शब्द में हजार अर्थों की झलक मिलने लगती है। एक-एक सूत्र में हजार दिशांए प्रकट होने लगती हैं। कहां जाए, कैसे जाए, क्या चुने, जाना ही बंद हो जाता है, खड़ा हो जाता है। अज्ञानी जाने में बड़े तीव्र होते हैं। कहीं भी चले जाते हैं। क्योंकि उन्हें ज्यादा दिखायी नहीं पड़ता। एक ही मार्ग दिख जाता है थोड़ा झलक उनको ले जाने के लिए काफी है। लेकिन ज्ञानी चलने में असमर्थ हो जाते हैं। वे खड़े रह जाते हैं। क्योंकि वे कहते हैं , जब तक अर्थ ही तय न हो जाए।