वर्ष 1893 की बात है। यह स्वामी विवेकानंद के जीवन काल का समय था। अपनी विद्वता से स्वामी विवेकानंद देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी बेहद चर्चित हो चुके थे। उनको अक्सर किसी सेमिनार में बोलने के लिए बुलाया जाता था। एक बार उनको अमेरिका के शिकागो से एक सेमिनार में बोलने के लिए बुलाया गया।
विवेकानंद अपनी माँ से बेहद प्रभावित थे और उनकी माँ अक्सर उनका मार्गदर्शन किया करती। माँ को जब विवेकानंद के अमेरिका जाने की बात पता चली, तो उन्होने विवेकानंद को सूचना भेजी और कहा, आज तुम घर पर खाना खाने आ जाओ, क्योंकि मैं यह भी जांच लेना चाहती हूँ कि तुम अभी विदेश जाकर सेमिनार में बोलने लायक परिपक्क्व हुए हो या नहीं।
दरअसल, उन दिनों स्वामीजी अक्सर भ्रमण पर रहा करते थे। माँ के आदेश पर आज नियत समय पर स्वामीजी घर पहुंचे। माँ ने उनकी पसंद का खाना बनाया था। स्वामीजी ने स्वाद लेकर खाना खाया। उसके बाद माँ ने उनको एक सेब दिया और साथ में एक चाकू भी दिया और फल खाने को कहा। स्वामीजी ने सेब को काटा और खा लिया।
फिर माँ ने उनसे चाकू मांगा। स्वामीजी ने माँ को चाकू दे दिया। माँ ने कहा, बेटा, अब मैं आश्वस्त हूँ कि तुम विदेश जाकर लोगों को ज्ञान देने के लायक हो गए हो। स्वामीजी को कुछ भी समझ मे नहीं आया। वे आश्चर्य से बोले, माँ, मैंने तो ऐसा कुछ किया ही नहीं और तुमने मेरी कोई परीक्षा भी नहीं ली।
माँ ने मुस्कुराते हुए बोली, बेटा, अभी मैंने तुमसे चाकू मांगा, तुमने इस तेज चाकू की धार की ओर से पकड़कर चाकू का लकड़ी वाला वह हिस्सा मेरे सामने कर दिया,जिससे मैं इसे आराम से पकड़ सकूँ और मुझे चोट न लगे, परंतु ऐसा करते समय तुमने इस बात की परवाह नहीं की कि तेज धार से तुम्हें भी चोट लग सकती थी,
इसलिए तुम इस परीक्षा मे उतिर्ण हो गए, जाओ और देश दुनिया मे अपने ज्ञान का प्रसार करो। यह बात सुनकर स्वामीजी का सिर माँ के सामने श्रद्धा से झुक गया और अपनी माँ को प्रणाम कर वे अमेरिका की ओर निकल पड़े।