एक प्रसिद्ध संत भव्य आश्रम बनाना चाहते थे। इसके लिए उन्हें धन की जरूरत थी। उन्होंने अपने शिष्यों के साथ नगर-नगर घूमना शुरू किया और लोगों से दान लेकर धन इकट्ठा करने लगे। एक दिन घूमते-घूमते रात हो गई। उन्होंने अपनी एक शिष्या की कुटिया में रुकने का निर्णय लिया। शिष्या काफी वृद्ध थी, लेकिन वह संत को अपना गुरु मानती थी।
गुरु को अपनी साधारण कुटिया में देखकर वह प्रसन्न हो गई। वहां किसी तरह की सुविधा नहीं थी, फिर भी संत वहीं ठहर गए। वृद्ध महिला ने संत के लिए खाना बनाया। खाने के बाद संत के लिए तख्त लगाया और उस दरी बिछा दी। इसके बाद स्वयं एक टाट बिछाकर जमीन पर ही सो गई।
संत को नर्म बिस्तर पर सोने की आदत थी, इस वजह से उन्हें तख्त पर बिछी दरी पर नींद नहीं आ रही थी। उन्होंने देखा कि वृद्ध महिला टाट पर आराम से सो रही है। संत ने सोचा कि मैं तो सभी को ज्ञान देता हूं, मेरे सैकड़ों भक्त हैं, सभी को निर्मोही होने का ज्ञान देता हूं, लेकिन मैं आज सो नहीं पा रहा हूं। जबकि ये साधारण बुढ़िया टाट पर भी आराम से सो रही है। मुझे एक दिन और यहां रुककर देखना चाहिए कि इस महिला के पास ऐसा कौन सा मंत्र है, जिसके प्रभाव से इसे इतनी अच्छी नींद आ जाती है।
अगले संत महिला के घर पर ही रुके और पूरे दिन उन्होंने देखा कि महिला क्या-क्या करती है। महिला ने सुबह उठते ही कुटिया की सफाई की, चिड़ियों को दाना-पानी रखा। गाय को घास खिलाई। सूर्य को जल चढ़ाया और पौधों की सिंचाई की। उसके बाद भगवान की पूजा की, गुरु को प्रणाम किया। भोजन बनाया और संत को दिया। शाम को बच्चों को भगवान की कहानियां सुनाई। भजन किए और पूजा की। दिन के अंत में खाना बनाकर अपने गुरु को खिलाया। ये सब देखकर संत ने सोचा कि इसकी दिनचर्या को बहुत सामान्य है।
उन्होंने वृद्ध महिला से पूछा कि आप ऐसा कौन सा मंत्र जानती है, जिससे आपको इतनी अच्छी नींद आती है। महिला ने कहा कि गुरुदेव मैं तो आपकी दी हुई शिक्षा का ही पालन करती हूं। मैं सोते समय मेरे दिनभर के अच्छे कामों के बारे में सोचती हूं। इससे मुझे आनंद मिलता है और मैं सब सुख-दुख भूल जाती हूं और मुझे गहरी नींद आ जाती है। जीवन में मेरे पास जो भी कुछ है, मैं उससे संतुष्ट रहती हूं। संतोष ही सबसे बड़ा सुख है।
संत ने सोचा कि मैं तो अपने सुख के लिए धन एकत्रित कर रहा था, जबकि असली सुख भव्य आश्रम में नहीं, बल्कि संतोष में है। ये ज्ञान इस वृद्ध महिला ने समझा दिया। ऐसा सोचकर संत ने उस महिला को अपना गुरु मान लिया। धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, सच्चा सुख धन और सुख-सुविधाओं में नहीं है, बल्कि संतोष में है।