प्राचीन इतिहास के समुद्र से गहरे उन्नत नगर “कालपुरी” की गाथा प्रकट होती है, जहां समय की धारा को मापने की कलात्मक व्यवस्था विकसित की गई थी। इस नगर में समय की देवी “कालिका” का विशाल मंदिर स्थित था, जिसमें एक अद्भुत यंत्र स्थापित था, जिसे “समयचक्र” कहा जाता था। यह यंत्र न केवल काल की गणना कर सकता था, बल्कि कथित रूप से इससे समय की गति को प्रभावित भी किया जा सकता था।
उसी कालपुरी में एक सीधे-सादे किंतु प्रतिभाशाली निवासी, “देवांशु” एक आम लोहार थे, जो अपने कौशल और दृढ़ निश्चय के लिए जाने जाते थे। एक रात, जब वह अपने कारखाने में काम कर रहे थे, तभी कालिका का एक पुजारी उनके पास आया और उन्हें समयचक्र की मरम्मत का कार्य सौंपा, क्योंकि देवांशु को लोहा और यंत्रों का सजीव ज्ञान था।
समीपस्थ मंदिर में जैसे ही देवांशु ने समयचक्र के नजदीक कदम रखा, वह समझ गए कि यह महज कोई सामान्य यंत्र नहीं, बल्कि एक अजूबा था। जैसे-जैसे वह मरम्मत में जुटे, उन्होंने महसूस किया कि यंत्र की जटिलताओं और कलाओं में एक अद्भुत प्रकार की ऊर्जा छिपी हुई है।
फिर एक दिन, जब देवांशु यंत्र की एक अजीब सी विसंगति की जांच कर रहे थे, वह अनजाने में एक ऐसे मार्ग में प्रवेश कर गए, जहाँ समय थम गया प्रतीत होता था, और उन्हें समय के विभिन्न पड़ावों की झलकियां मिलने लगीं। उन्होंने देखा कि समयचक्र वास्तव में समय के ताने-बाने में बदलाव ला सकता है।
देवांशु को बहुत जल्द समझ आ गया कि यह यंत्र अपार शक्ति और जिम्मेदारियों का धनी था। उन्होंने महसूस किया कि अगर गलत हाथों में पड़ जाए, तो समयचक्र से पूरे विश्व को नष्ट भी किया जा सकता है। देवांशु ने मरम्मत की और यंत्र को फिर से सामान्य कर दिया, लेकिन इस घटना ने उनके भीतर एक गहरी उथल-पुथल पैदा कर दी थी।
समयचक्र के रहस्य को समझते हुए, देवांशु ने इसके अस्तित्व को गुप्त रखने और इसे संरक्षित करने का व्रत लिया। यह न केवल उनकी अकेली खोज थी, बल्कि पूरी मानवता के लिए एक संरक्षण का कवच भी।
देवांशु ने अपने जीवन का बाकी का समय समयचक्र की रक्षा में लगा दिया और नगर के लोगों को समय के मूल्य का पाठ पढ़ाया। उन्होंने सिखाया कि समय का सही उपयोग कैसे करना चाहिए और इसके साथ कैसे सम्मानपूर्वक व्यवहार करना चाहिए।
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, असीम शक्तियों के साथ एक बड़ी जिम्मेदारी आती है और समय का सही अर्थ समझने और उसका सम्मान करने में ही जीवन का सार छिपा है।