किसी शहर में एक बड़ा धनी सेठ रहता था। वह सेठ दिल का उदार था और परोपकार में भी आगे रहता था। जो भी संत उस शहर में आता, उनका वह जी भर सत्कार करता। इसके चलते उस शहर में ही नहीं, दूर-दूर तक सेठ के दान-पुण्य के कार्यों की चर्चा रहती थी। इन सबकी वजह से सेठ के मन में अहंकार आने लगा था।
वह दान-पुण्य तो करता ही रहा, लेकिन धीरे-धीरे अपने सद्गुणों को लेकर अपनी श्रेष्ठता का भाव उसके अंदर बैठता चला गया। कुछ समय बाद एक बड़े संत उस शहर में आए। सेठ को जब इसका पता चला तो वह संत के पास पहुंच गया। उसने संत से कहा, ‘हमारा सौभाग्य है कि आप हमारे शहर आए। आप मेरे घर को भी अपनी चरण धूलि से पवित्र कर दें तो मैं कृतार्थ हो जाऊंगा।’ यह कहकर वह संत को अपना भव्य बंगला दिखाने ले आया।
संत अलमस्त थे, पर सेठ अपने बड़प्पन की डीगें हांकने में व्यस्त था। संत को उसकी हर बात में अहम नजर आ रहा था। आखिर संत ने उसकी मैं-मैं की महामारी मिटाने के उद्देश्य से दीवार पर टंगे मानचित्र को दिखाते हुए पूछा, ‘इसमें तुम्हारा शहर कौन सा है’ सेठ ने मानचित्र पर एक बिंदु पर उंगली टिकाई। संत ने हैरान मुद्रा में पूछा, ‘इतने बड़े मानचित्र पर तुम्हारा शहर बस इतना सा ही है। क्या तुम इस नक्शे में अपना बंगला बता सकते हो।’ उसने जबाव दिया, ‘इतने बड़े नक्शे में भला मेरा बंगला कहां दिखेगा महाराज। वह तो ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर है।’
संत ने पूछा, ‘तो फिर इतना अभिमान किस बात का।’ शर्मिंदगी के मारे सेठ का सिर झुक गया। वह समझ गया कि दुनिया और ब्रह्मांड की बात क्या करना, इस छोटे से नक्शे में भी उसका नामो निशान नहीं है। अपनी मूर्खता में वह बेवजह ही स्वयं को अति महत्वपूर्ण मान रहा था।
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, कभी अपने धन, तन और मान का अभिमान नहीं करना चाहिए। इनमें कुछ भी स्थाई नहीं है। अपने जीवन को सदा सेवाभाव व परोपकार में ही लगाएं।