धर्म

परमहंस संत शिरोमणि स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से— 403

किसी जंगल में एक संन्यासी रहता था। वह भगवान का बहुत बड़ा भक्त था। उसने कई वर्षों तक तपस्या की। फलस्वरूप भगवान उसकी तपस्या से प्रसन्न हो गए। उन्होंने उसे कुछ शक्तियाँ प्रदान की।

शक्तियाँ पाने के बाद संन्यासी को अपने ऊपर घमंड हो गया। एक दिन वह किसी कार्य से पास के गाँव में जा रहा था। रास्ते में एक नदी पड़ती थी। नदी किनारे पहुँचकर उसने चारों ओर देखा तो वहाँ उसे एक नाव और नाविक दिखाई दिया।

वह नदी पार करने के लिए नाव किराए पर ले ही रहा था कि तभी उसे नदी के दूसरे किनारे पर तपस्या करते हुए एक साधु दिखाई दिया। अब संन्यासी अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना चाहता था।
उसने अपनी शक्ति का प्रयोग पानी के ऊपर चलने में किया। वह नदी पार कर साधु के पास गया और बोला, “देखो मैं बहुत अधिक शक्तिशाली हूँ। मैं पानी के ऊपर चल सकता हूँ। क्या तुम ऐसा कर सकते हो?”

साधु बोला, “हाँ, कर सकता हूँ। लेकिन तुमने इस कार्य के लिए अपनी शक्ति यूँ ही व्यर्थ की। नदी तो तुम नाव में बैठकर भी पार कर सकते थे। सिर्फ प्रदर्शन के लिए शक्ति खर्च करने की क्या आवश्यकता थी?” साधु की बात सुनकर संन्यासी ने लज्जा से सिर झुका लिया।

धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, अपनी शक्ति, धन और समय का प्रयोग कभी भी अपने अहं की पूर्ति के लिए नहीं करना चाहिए। शक्ति, धन और समय का प्रयोग सदा असहाय की सहायता व सेवा कार्य में ​ही करना चाहिए।

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