धर्म

परमहंस संत शिरोमणि स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से—423

एक समय की बात है एक गाँव में एक पंडित रहता था। एक बार किसी परिवर ने उसे अपने यहां पंडित को भोज पर बुलाया और दान में उसे एक छोटी सी बछिया दी। बछिया को पाकर वो बड़ा खुश हुआ और खुशी से अपने घर जाने लगा। रास्ता लम्बा और सुनसान था। रास्ते में पंडित के कंधे पर बछिया को देखकर तीन ठग के मन में उस बछिया को चुराने का विचार आया। तीनों ने उसे हथियाने की योजना बना ली। तीनों अलग-अलग हो गए।

ब्राह्मण के पास से गुजरते हुए एक ठग ने उनसे कहा, क्या पंडितजी! एक ब्राह्मण होकर एक गधे के बच्चे को अपने कंधो पर उठा रखा है आपने!

ब्राह्मण ने कहा, अंधे हो क्या? कुछ भी अनाप-शनाप बोल रहे हो? तुम्हें दिखाए नहीं देता ये गधा का बच्चा नहीं बछिया है। इस पर ठग ने कहा— मेरे काम था आपको बताना, आगे आपकी मर्जी!

थोड़ी दूर चलने के बाद ब्राह्मण को दूसरा ठग मिला।

उसने ब्राह्मण से कहा, पंडितजी क्या आप नहीं जानते उच्च कुल के लोगों को अपने कंधो पर गधे का बच्चा नहीं लादना चाहिए। ब्राह्मण ने उसे भी झिड़का दिया और आगे बढ़ गया।

थोड़ी और दूर आगे जाने के बाद ब्राह्मण को तीसरा ठग मिला और उसने पूछा— पंडितजी इस गधे के बच्चे को पीठ पर लाद के जाने का क्या कारण है?

इस बार ब्राह्मण के मन में शक आया कि कही उसकी ही आंखे तो धोखा नहीं खा रही है, इतने लोग तो झूठ नहीं बोल सकते। और उसने रास्ते में थोड़ा आगे जाकर बछिया को अपने कंधे से उतारा तो बछिया भाग खड़ी हुई। मौका मिलते ही तीनों ठगों ने मिलकर बछिया को काबू करके बाजार में बेच दिया।

धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, कई बार झूट को भी मेजोरिटी में बोलने पर वह सच जैसा मालूम पडता है और लोग धोखे का शिकार हो जाते है।

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