दीर्घकाल तक राज करने के बाद महाराज ययाति ने अपने पुत्र को सिंहासन सौंप दिया और स्वयं बन में जाकर तप क़रने लगे। कठोर तप के फलस्वरूप वे स्वर्ग में पहुंचे। उनके तप का प्रभाव इतना प्रबल था कि इंद्र उन्हें अपने से नीचे के आसन पर नहीं बैठा सकते थे। इसलिए इंद्र को उन्हें अपने सिंहासन पर अपने साथ बैठाना पड़ता था।
यह बात इंद्र को तो अप्रिय लगती ही थी, देवता भी इसे स्वीकार नहीं कर पाते थे। इंद्र भी देवताओं की इस भावना से परिचित थे। एक दिन इंद्र ने कुछ सोचकर ययाति से पूछा-हे महात्मग! आपका पुण्य असीम है और तीनों लोकों में प्रसिद्ध है। आपकी बराबरी कोई नहीं कर सकता। मुझे यह बताइए कि आपने ऐसा कौन-सा तप किया है, जिसके प्रभाव से आप स्वर्गलोक में भी इच्छानुसार रह सकते हैं?
इंद्र की बातें सुनकर ययाति के मन में अंहकार की भावना जाग उठी। इंद्र के वाकचातुर्य को न समझते हुए ययाति अंहकारी स्वर में बोले- देवता, गंधर्व, मनुष्य और ऋषियों में कोई भी ऐसा नहीं है, जो मेरे समान तपस्वी हो। यह सुनते ही इंद्र ने आदेश दिया-ययाति! तत्काल मेरे सिंहासन से उठ जाओ। अपनी प्रशंसा अपने ही मुख से करके तुमने अपने सारे पुण्य समाप्त कर लिए हें।
तुमने यह जाने बिना की देवता, मनुष्य, गंधर्व, ऋषियों ने क्या-क्या तप किए? उनसे अपनी तुलना कर उनका घोर अपमान किया है। अब तुम स्वर्ग से गिरोगे। स्वयं की प्रशंसा कर ययाति ने अपने तप-फल को समाप्त कर लिया और वे स्वर्ग से अलग कर दिए गए।
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, प्रशंसा अन्यों के द्वारा होना उत्तम है, क्योंकि यही बड़प्पन का लक्षण है, जबकि आत्मप्रशंसा ओछेपन का लक्षण है।