पुराने समय एक राजा हुए थे, जिनका नाम था राजा भोज। दिनभर काम में व्यस्त रहने के बाद गहरी नींद में सोए हुए थे। सपने में उन्हें एक दिव्य पुरुष के दर्शन हुए। भोज ने बड़ी विनम्रता से उनका परिचय पूछा। वे बोले,’मैं सत्य हूं। मैं तुम्हें तुम्हारी उपलब्धियों का वास्तविक रूप दिखाने आया हूं। आओ, मेरे साथ।’
राजा उत्सुकता और खुशी से उनके साथ चल दिए। भोज खुद को बहुत बड़ा धर्मात्मा समझते थे। उन्होंने अपने राज्य में कई मंदिर, धर्मशालाएं, कुएं और नदी आदि बनवाए थे। उनके मन में इन कामों के लिए गर्व भी था। दिव्य पुरुष राजा भोज को उनके ही एक शानदार बगीचे में ले गए और बोले, तुम्हें इस बगीचे का बड़ा अभिमान है न। फिर उन्होंने एक पेड़ छुआ और वह ठूंठ हो गया। एक-एक करके सभी सुंदर फूलों से लदे वृक्षों को छूते गए और वे सब ठूंठ होते चले गए।
इसके बाद वह उन्हें भोज के एक स्वर्णजड़ित मंदिर के पास ले गए। भोज को वह मंदिर बहुत प्रिय था। दिव्य पुरुष ने जैसे ही उसे छुआ, वह लोहे की तरह काला हो गया और खंडहर की तरह गिरता चला गया। ये देखकर राजा के तो होश उड़ गए। वे दोनों उन सभी स्थानों पर गए, जिन्हें राजा भोज ने चाव से बनवाया था। दिव्य पुरुष बोले, ‘राजन, भ्रम में मत पड़ो। भौतिक वस्तुओं के आधार पर महानता नहीं आंकी जाती।
दिव्य पुरुष ने कहा एक गरीब आदमी द्वारा पिलाए गए एक लोटे जल की कीमत, उसका पुण्य, किसी धनी की करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं से कहीं अधिक है। इतना कहकर वे अंतर्धान हो गए। राजा भोज ने सपने पर गंभीरता से विचार किया और फिर ऐसे कामों में लग गए, जिन्हें करते हुए उन्हें यश पाने का लालच बिल्कुल नहीं रहा।
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, भौतिक चीजें नश्वर हैं इन पर गर्व करना सबसे बड़ी मूर्खता है। सेवा से बढ़कर कोई पुण्य का काम नहीं होता। इसलिए जब भी अवसर मिले दीन—हीन की सेवा का मौका मत चूकना। मानव जीवन का ये सार—तुम सेवा से पाओगे पार।