धर्म

परमहंस स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से—93

आत्मदेव ब्रह्मण हर तरह से सुखी था,परन्तु उसके कोई सन्तान नहीं थी। इस दु:ख से दु:खी होकर सोचने लगा कि ऐसे जीने से तो मृत्यु अच्छी। तुंगभद्रा नदी में आत्महत्या करने घर से चल पड़ा। रास्ते में एक सन्त मिले। उदास ब्रह्मण को देखकर पूछा,आप बड़े निराश दिखाई पड़ रहे हो,क्या बात है? ब्रह्मण चरणों में गिरकर रोने लगा और कहने लगा,महाराज, काफी वर्ष हो गए लेकिन घर में किसी नन्हें मुन्ने की नन्हीं मुस्कान देखने को नहीं मिली। बिना सन्तान के जीवन सूना हैं, अत: जीने की इच्छा ही खत्म हो गई, इसीलिए आत्महत्या करने के विचार से ही घर से निकला हूं। सुनकर महात्माजी ने बहुत समझाने का प्रयत्न किया लेकिन सब व्यर्थ गया,उसको तो केवल पुत्र ही पुत्र नजर आता था। सन्त ने कहा, हे ब्रह्मण आत्महत्या करनेवाला सीधा नरक में जाता है,इसलिए यह दुष्कर्म कभी मत करना और यह आवश्यक नहीं है पुत्र हो जाने मात्र से सुख मिल जाये, कई बार पूत कपूत हो जाने से जीवन और भी दु:खमय बन जाता है,इतिहास साक्षी है।

परन्तु ब्रह्मण ने सन्त के चरण पकड़ लिए और कहने लगा, महाराज मैं आपके चरण तब तक नहीं छोडूंगा जब तक आप मुझे पुत्र होने का आर्शीवाद नहीं देंगे। सन्त दयालु होते हैं, रोते हुए को देखकर उनका हृदय करूणा से भर जाता है और दु:ख दूर करने में स्वयं को कितना ही कष्ट क्यों न उठाना पड़े, परवाह नहीं करते। सन्त ने अपनी झोली में से एक फल निकाला,ब्रह्मण को दिया और कहा यह फल अपनी पत्नी को खिला देना,पुत्र तो हो जायेगा लेकिन तुम्हें सुख नहीं मिलेगा। फल् लेकर ब्रह्मण घर आया और वह फल पत्नी को खाने के लिए दे दिया।

धुन्धुली ने प्रसव पीड़ा के भय से भयभीत होकर सोचा कि मुझसे इतनी पीड़ा सहन नही होगी। पतिदेव को पुत्र ही चाहिये तो क्यों न मैं अपनी सहेली से पुत्र गोद लेने की बात कर लूं । सहेली को बुलाया और कहा, बहन तुम्हें जो चाहिये मैं दे दूंगी,होनेवाले पुत्र को तुम मुझे दे देना। ऐसा कहकर जो फल पति ने दिया था,वह गऊ को खिला दिया और स्वयं ऐसे रहने लगी जैसे गर्भवती महिला रहती है।

नौ मास पूरे हो गए,रात के 12 बजे ज्योंही उसकी सहेली ने पुत्र जन्मा ,उसी समय उससे ले लिया और सन्देश भिजवा दिया कि पुत्र का जन्म हुआ है। ब्रह्मण बड़ा खुश हुआ। खुशियां मनाई गई, ब्रह्मणों को बुलाया गया, नामाकरण का समय आया तो नाम रखा गया धुन्धुकारी। उधर जो फल गाय ने खाया था उसके भी एक बच्चा हुआ,बहुत ही खूबसुरत था लेकिन उसके कान गाय के समान थे लम्बे लम्बे,इसीलिए उसका नाम रखा, गोकर्ण।

धुन्धुकारी तो अनपढ़ रह गया तथा कुसंगत के कारण शराबी,जुआरी बन गया। लेकिन गोकर्ण पढ़ लिख कर विद्वान् बन गया। माता-पिता की सेवा करने वाला सदाचारी बना। एक दिन धुन्धुकारी ने शराब के नशे में अन्ध होकर पिता पर हाथ उठाया तो गाकर्ण ने उसको दूर हटाकर,पिता से कहने लगा, पिता जी आप मेरे साथ रहो,मेरा सौभाग्य होगा कि मैं आपकी कुछ सेवा कर सकूँ ।

धर्ममूलो हि भगवान्! धर्म के मूल भगवान श्री कृष्ण है। इसलिए निरन्तर श्री कृष्ण का भजन करो, लोक धर्म का परित्याग करो,साधु पुरूषों के सेवा, संगति करो, काम -तृष्णा आदि को नष्ट करो आपका सब प्रकार से कल्याण होगा। धर्म की व्याख्या करते हुए गोकर्ण ने कहा, पिताजी आपको अब लौकिक धर्म को उपेक्षित करके पारलौकिक धर्म में अपना समय बिताना चाहिए। सांसारिक जिने भी कर्तव्य रूप में जो कार्य किए जाते हैं वे सब लौकिक धर्म हैं। ये धर्म साथ नहीं जाने वाला। इसलिए अब प्रभु का सुमरिन कर लीजिए। प्रभु का नाम ही साथ जायेगा। बाकि सब यहीं छुट जायेगा।

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Jeewan Aadhar Editor Desk

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