एक बार लंका युद्ध में लक्ष्मण मेघनाद के बाण से गंभीर रूप से घायल होकर मूर्छित हो गए। पूरा रणक्षेत्र मौन हो गया। श्रीराम का हृदय दुख से भर आया। उनके प्रिय भाई लक्ष्मण का प्राण संकट में था।
वैद्य सुषेण को बुलाया गया। उन्होंने कहा—
“यदि लक्ष्मण को बचाना है तो हिमालय पर स्थित संजीवनी बूटी लानी होगी। वह भी सूर्योदय से पहले।”
यह सुनते ही सब स्तब्ध हो गए। कौन इतनी लंबी दूरी तय कर सकेगा, वह भी रात के भीतर? तभी सबकी दृष्टि हनुमान जी पर पड़ी।
हनुमान ने बिना एक पल गँवाए प्रणाम किया और कहा—
“प्रभु! मेरे रहते आपके भाई को कुछ नहीं होगा। मैं अभी जाकर संजीवनी लाता हूँ।”
वे तुरंत आकाश मार्ग से उड़ चले। पर्वत पर पहुँचकर देखा कि असंख्य जड़ी-बूटियाँ चमक रही हैं। कौन-सी संजीवनी है, यह पहचान न पाए।
क्षणभर भी संदेह किए बिना हनुमान ने पूरा पर्वत ही उठा लिया और आकाश मार्ग से लंका लौट आए।
जब सुषेण ने उस पर्वत से संजीवनी बूटी निकाली और लक्ष्मण के शरीर पर लगाई, तो वे तुरंत स्वस्थ हो गए। राम जी की आँखों से आँसू बहने लगे। उन्होंने हनुमान को गले लगाकर कहा—“हनुमान! तुम्हारे जैसे भक्त और सेवक के कारण ही धर्म की रक्षा संभव है।”
यह प्रसंग हमें सिखाता है कि— कर्तव्य के समय संकोच नहीं करना चाहिए। हनुमान जी ने न परिणाम की चिंता की, न कठिनाई की, बस लक्ष्य को ध्यान में रखकर पूरा प्रयास किया।
जब मन में निष्ठा और सेवा-भाव हो, तो असंभव भी संभव बन जाता है।
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, जीवन में जब कोई समस्या संजीवनी बूटी जैसी दुर्लभ लगे, तब हनुमान जी की तरह निश्चय और साहस से आगे बढ़ना चाहिए। जीत अवश्य मिलती है।