एक बार की बात है। गांव के किनारे एक संत रहते थे। लोग अक्सर उनसे पूछते— “बाबा! हम रोज़ प्रार्थना करते हैं, पूजा-पाठ करते हैं, फिर भी हमें परमात्मा की कृपा का अनुभव क्यों नहीं होता?”
संत मुस्कुराए और बोले, “मैं कल तुम्हें इसका उत्तर दूंगा, लेकिन पहले तुम्हें एक कार्य करना होगा।”
अगले दिन संत ने गांव के एक युवक को बुलाया और उसे एक खाली मिट्टी का घड़ा थमा दिया। बोले—“इसे नदी में भरकर लाओ।”
युवक गया, घड़ा पानी से भर लाया। संत ने कहा—
“अब इस घड़े को अपने सिर पर रखकर पूरे गांव का चक्कर लगाओ। लेकिन ध्यान रखना, पानी छलकना नहीं चाहिए।”
युवक पूरे ध्यान से चला। लोग रास्ते में हंसते, कोई पुकारता, कोई टोकता, लेकिन युवक का ध्यान केवल घड़े पर था कि पानी न गिरे।
जब वह वापस आया, संत ने पूछा— “बेटा, रास्ते में किसी ने क्या कहा, देखा?”
युवक बोला— “महाराज! मुझे कुछ याद नहीं। मैं तो बस पानी को गिरने से बचाने में लगा था।”
संत बोले— “यही उत्तर है। बेटा! जब मन संसार की आवाज़ों और उलझनों में बिखरा रहता है, तब परमात्मा की कृपा महसूस नहीं होती। लेकिन जब मन एकाग्र होकर केवल प्रभु पर टिक जाता है, तो जैसे घड़े में पानी संभाला, वैसे ही हृदय में परमात्मा की कृपा संभल जाती है। कृपा हमेशा बरस रही है, फर्क सिर्फ़ यह है कि हम महसूस करने के लिए ध्यानमग्न हैं या बिखरे हुए।”
उस दिन से युवक ने समझ लिया— परमात्मा की कृपा कोई बाहर से मिलने वाली वस्तु नहीं है। वह तो हर पल बरस रही है। उसे अनुभव करने के लिए मन को प्रभु में लगाना और कृतज्ञता से जीना ही पर्याप्त है।