एक गाँव था—शांत, हरियाली से भरा, लेकिन मनुष्यों के मन में कलह और ईर्ष्या का विष भरा हुआ था। वहाँ के लोग छोटी-छोटी बातों पर झगड़ते, अपशब्द बोलते और दिन-रात दूसरों की बुराई करते।
एक दिन वहाँ एक संत आए। उनके चेहरे पर शांति, वाणी में मिठास और दृष्टि में करुणा थी। गाँव वालों ने उनका स्वागत तो किया, पर कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ। संत ने कुछ दिन वहीं ठहरने का निश्चय किया।
एक सुबह उन्होंने गाँव के चौपाल में लोगों को बुलाया और कहा— “मनुष्य की वाणी ही उसके जीवन का आईना है। जिस तरह बाग़ में फूलों की खुशबू रहती है, वैसे ही सुगंधित वाणी से जीवन महकता है।”
एक व्यक्ति बोला— “संतजी, ये तो सब कहते हैं, पर वाणी का असर क्या इतना बड़ा होता है?”
संत मुस्कुराए, बोले— “आज मैं तुम्हें दिखाता हूँ।”
उन्होंने दो बर्तन मंगवाए। एक में मीठा जल रखा, दूसरे में नीम का काढ़ा। फिर दो पौधे लगाए—
एक को रोज मीठा जल दिया, दूसरे को नीम का काढ़ा।
संत बोले— “इन दोनों को प्रतिदिन सींचते रहो। साथ ही पहले पौधे से प्यार से बोलो—‘तू कितना सुंदर बढ़ेगा।’ और दूसरे को कठोर शब्द कहो—‘तू कभी नहीं बढ़ेगा। ”
गाँव वाले हँसे, लेकिन संत के आदेश से ऐसा करने लगे। एक महीने बाद उन्होंने देखा—पहला पौधा हरा-भरा, ऊँचा और सुंदर था। दूसरा सूखने लगा था।
अब संत ने सबको बुलाया और कहा— “जिस वाणी से पौधा जीवित प्राणियों पर असर डाल सकती है, सोचो वह मनुष्य के मन पर कितना प्रभाव डालती होगी! मीठे शब्द मन को सींचते हैं, कटु वाणी सुख को सुखा देती है।”
उस दिन के बाद गाँव के लोगों ने झगड़ना छोड़ दिया। अब वहाँ कोई अपशब्द नहीं बोलता था। लोग एक-दूसरे से विनम्रता से बात करने लगे। धीरे-धीरे गाँव समृद्ध और सुखी हो गया।
अंत में संत बोले— “जहाँ वाणी में प्रेम है, वहाँ ईश्वर स्वयं वास करते हैं।”
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, मीठी वाणी केवल दूसरों को नहीं, स्वयं को भी सुख देती है। बोलने से पहले सोचें—क्या हमारे शब्द किसी के हृदय को ठेस तो नहीं पहुँचा रहे?