एक नगर में हरिदास नाम के एक प्रसिद्ध सेठ रहते थे। सोने-चांदी, महल-मकान, नौकर-चाकर – किसी चीज़ की कमी नहीं थी। पर एक दिन वे अचानक बहुत चिंतित हो गए। उन्होंने नगर के प्रसिद्ध संत शिवानंदजी के पास जाकर कहा— “महाराज, मेरे पास सब कुछ है, पर मन शांति नहीं पाता। कृपया बताइए, संसार में सबसे बड़ी संपत्ति क्या है? मैं उसे प्राप्त करना चाहता हूँ।”
संत मुस्कुराए और बोले— “सेठजी, इसका उत्तर सुनने से नहीं, समझने से मिलता है। आप कल सुबह मेरे साथ चलिए।”
अगले दिन संत सेठ को लेकर पास के एक गाँव गए। रास्ते में उन्होंने देखा—एक गरीब किसान टूटी झोपड़ी में रहता था। कपड़े फटे थे, पर चेहरा हँसी से भरा हुआ।
संत ने पूछा, “भाई, तुम्हारे पास धन नहीं, आराम नहीं, फिर भी तुम इतने प्रसन्न क्यों हो?”
किसान ने हाथ जोड़कर कहा— “महाराज, मेरे पास जो भी है, वही काफी है। हर सुबह जब आँख खुलती है, तो भगवान का धन्यवाद करता हूँ कि आज फिर जीने का अवसर मिला। यही मेरे लिए सबसे बड़ा धन है।”
संत ने मुस्कुराकर सेठ की ओर देखा और कहा “सेठजी, देखिए, इस किसान के पास धन नहीं, पर संतोष है — और यही सबसे बड़ी संपत्ति है।”
सेठ ने कहा, “पर महाराज, क्या संतोष से पेट भर जाता है?”
संत ने शांत स्वर में कहा— “सेठजी, धन से वस्तुएँ खरीदी जा सकती हैं, पर नींद नहीं। धन से नौकर खरीदे जा सकते हैं, पर सच्चा मित्र नहीं। धन से दवा खरीदी जा सकती है, पर स्वास्थ्य नहीं।
जो संतोष, प्रेम और सच्चाई में जीना जानता है — वही सबसे बड़ा धनवान है।”
सेठ के मन में जैसे कोई दीपक जल उठा। उन्होंने संत के चरणों में सिर झुका दिया और बोले—
“महाराज, अब समझ आया—सबसे बड़ी संपत्ति ‘संतोष और शांति’ है, न कि सोना-चांदी।”
संत ने मुस्कुराकर कहा— “सही कहा सेठजी, बाहरी संपत्ति खो सकती है, पर अंदर की संपत्ति—संतोष, प्रेम, और सद्भाव—यह कभी नहीं मिटती।”
उस दिन से सेठ का जीवन बदल गया। वे अपने धन का कुछ भाग गरीबों की सहायता में लगाने लगे और रातों को पहली बार चैन की नींद आने लगी।
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, “धन से जीवन सुखी नहीं होता, संतोष ही सच्ची संपत्ति है।”