धर्म

परमहंस संत शिरोमणि स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से— 692

एक दिन एक युवक दुखी मन से एक संत के आश्रम पहुँचा। चेहरे पर थकावट थी, आँखों में निराशा। उसने संत के चरणों में गिरकर कहा—
“गुरुदेव, मैं सबके लिए अच्छा सोचता हूँ, मदद करता हूँ, पर जब मुझे ज़रूरत होती है, तब कोई मेरे साथ नहीं होता। अब तो मन टूट गया है।”

संत मुस्कुराए और बोले— “बेटा, मेरे साथ चलो।”

वे उसे आश्रम के पीछे एक छोटे बगीचे में ले गए। वहाँ कुछ पेड़ थे—नीम, आम और गुलाब के।
संत ने कहा—
“देखो, यह नीम का पेड़ है। यह कड़वा फल देता है, पर क्या कभी किसी से पूछता है कि ‘क्या तुम मुझे पानी दोगे?’”

युवक ने कहा— “नहीं गुरुदेव, वह तो बस अपनी जड़ से पानी खींच लेता है।”

संत ने आगे कहा— “और यह गुलाब देखो, कितने सुंदर फूल देता है, पर क्या किसी से कहता है कि ‘मेरी खुशबू का बदला दो’? नहीं। वह बस खिलता है और सुगंध बाँटता रहता है।”

फिर संत ने युवक की ओर देखकर कहा— “जीवन में सुखी वही रहता है जो देता है, पर बदले में कुछ उम्मीद नहीं रखता। उम्मीद अगर किसी से रखी भी जाए, तो केवल ईश्वर से, क्योंकि वही ऐसा दाता है जो कभी निराश नहीं करता।”

युवक कुछ क्षण मौन रहा, फिर बोला— “गुरुदेव, तो क्या मुझे किसी से कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए?”

संत मुस्कुराए— “उम्मीद रखना गलत नहीं, पर उसे आधार बना लेना गलत है। जब तुम अपने कर्म के मालिक बन जाओगे, तो तुम्हारा सुख किसी के व्यवहार पर निर्भर नहीं रहेगा। तब तुम हर परिस्थिति में शांत रह सकोगे।”

युवक के चेहरे पर पहली बार संतोष की झलक आई। वह बोला— “गुरुदेव, अब समझ गया—दुनिया से नहीं, खुद से उम्मीद रखनी चाहिए। क्योंकि जब मैं खुद बदलूंगा, तो संसार अपने आप बदल जाएगा।”

संत ने कहा— “यही जीवन का रहस्य है, बेटा। किसी से कोई उम्मीद न रख, बस अपना कर्म करते रह। जो तुम्हारा है, वह स्वयं चलकर तुम्हारे पास आएगा।”

और उस दिन से युवक ने दूसरों से नहीं, खुद से उम्मीद रखना शुरू किया—और जीवन शांत, सहज और आनंदमय हो गया।

धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, जब बिना अपेक्षा के कर्म करते है, तब इंसान का मन ईश्वर के समान विशाल हो जाता है। यही सच्ची सेवा और सेवाभाव है। यही सेवा भवसागर से पार लेकर जाती है।

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Jeewan Aadhar Editor Desk