एक नगर में एक संत रहते थे, जो हमेशा यही उपदेश देते थे कि कर्म बड़ा है, धर्म नहीं। उनका मानना था कि केवल पूजा-पाठ या धार्मिक कर्मकांडों से कुछ नहीं होता, व्यक्ति के कर्म ही उसे महान बनाते हैं।
नगर के राजा को संत की यह बात कुछ अटपटी लगी। उन्होंने संत की परीक्षा लेने की सोची। राजा ने एक गरीब और भूखे व्यक्ति को सोने की मोहरों से भरा एक थैला दिया और कहा कि वह यह थैला लेकर संत के पास जाए।
गरीब व्यक्ति मोहरों का थैला लेकर संत के आश्रम पहुँचा और संत को प्रणाम करके बोला, “महाराज, मुझे ये मोहरें एक राजा ने दी हैं। मेरी गरीबी दूर हो जाएगी।”
संत ने मोहरें देखीं और शांत भाव से कहा, “ये मोहरें राजा का दान हैं, इन्हें तुम रख लो। लेकिन यह धन तुम्हारे किस काम आएगा जब तुम इन्हें अच्छे कर्मों में नहीं लगाओगे?”
गरीब व्यक्ति ने कहा, “महाराज, मैं इन मोहरों को अपने और अपने परिवार के लिए भोजन, वस्त्र और रहने के लिए घर बनाने में लगाऊँगा।”
संत ने मुस्कुराकर कहा, “यही तुम्हारा कर्म है और यही तुम्हारा धर्म भी है। भूखे को भोजन कराना, निर्बल की सहायता करना, और अपने परिवार का पालन-पोषण करना ही सबसे बड़ा धर्म है।”
इसके बाद संत ने राजा के गुप्तचरों के माध्यम से राजा को एक और संदेश भेजा। उन्होंने कहा, “हे राजन, आपके मोहरों का कर्म (दान) तभी सफल होगा जब वह गरीब व्यक्ति इन मोहरों को अच्छे धर्म (कर्तव्य) में लगाएगा। कर्म बिना धर्म के अधूरा है, और धर्म बिना अच्छे कर्मों के निरर्थक है।”
राजा को अपनी गलती का एहसास हुआ। वह समझ गए कि संत का आशय यह नहीं था कि धार्मिक आस्था न रखें, बल्कि यह था कि धर्म का सार अच्छे कर्मों में है।
संत ने समझाया कि धर्म और कर्म एक-दूसरे के पूरक हैं।
कर्म (Action): हमारे द्वारा किए गए सभी कार्य।
धर्म (Righteousness / Duty): वह आधार, नैतिकता और कर्तव्य जिसके अनुसार कर्म किए जाने चाहिए।
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी! वास्तव में, धर्म वह नींव है जो हमें सही और गलत का ज्ञान देती है, और कर्म वह क्रिया है जो उस ज्ञान को जीवन में उतारती है। दोनों में कोई छोटा या बड़ा नहीं है, बल्कि एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं। सही मायने में, ‘धर्मयुक्त कर्म’ ही श्रेष्ठ है।









