हिमालय की गोद में बसे एक छोटे से गाँव में एक संत रहते थे — संत प्रज्ञानंद। उनके पास दूर-दूर से लोग ज्ञान पाने आते थे। एक दिन एक युवा शिष्य उनके पास आया। चेहरा उदास था, आँखों में निराशा।
वह बोला, “गुरुदेव, मैं बहुत प्रयास करता हूँ, लेकिन सफलता मुझसे कोसों दूर है। अब तो मन करता है, सब छोड़ दूँ। लगता है, किस्मत मेरे साथ नहीं है।”
संत ने शांत स्वर में कहा, “बेटा, कल सुबह मेरे साथ चलना, तुम्हारे सवाल का जवाब रास्ता खुद देगा।”
अगले दिन सूरज उगा ही था कि दोनों यात्रा पर निकल पड़े। रास्ता कठिन था — पथरीली ज़मीन, ठंडी हवाएँ और ऊपर पहाड़ की चढ़ाई। कुछ दूर चलने के बाद युवक थक गया और बोला, “गुरुदेव, आगे बहुत ऊँचाई है, क्या थोड़ी देर रुक जाएँ?”
संत मुस्कुराए, बोले, “यदि हम ठहर गए, तो ठंड हमारे शरीर को जकड़ लेगी। अगर आगे नहीं बढ़े, तो यही रास्ता हमारी मंज़िल बन जाएगा। बेटा, चलते रहना ही जीवन है।”
दोनों आगे बढ़ते रहे। रास्ते में उन्हें एक यात्री मिला जो थककर एक पत्थर पर बैठा था। उसने कहा, “थोड़ी देर आराम कर लेता हूँ, फिर चलूँगा।”
संत ने कहा, “ठहरना भी कभी-कभी सबसे बड़ा रुकावट बन जाता है।”
किंतु वह व्यक्ति नहीं माना। कुछ ही देर में बर्फ़बारी शुरू हो गई। वह वहीं बैठा रह गया — जकड़ गया। संत ने चलते-चलते शिष्य से कहा, “देखो बेटा, जो रुक गया, उसका भाग्य भी यहीं थम गया। चलना कठिन है, पर रुकना मृत्यु है।”
घंटों की कठिन यात्रा के बाद वे शिखर पर पहुँचे। वहाँ से नीचे देखते हुए संत बोले — “यह जो सुंदर दृश्य तुम देख रहे हो, यह केवल उन लोगों को मिलता है जो ठहरते नहीं।
जीवन की राह में भी यही नियम है — जब तुम कोशिश करना बंद कर देते हो, तो किस्मत भी तुम्हारी मदद करना बंद कर देती है।”
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, जो व्यक्ति निरंतर कर्म करता रहता है, वही सफलता को प्राप्त करता है। राह कठिन हो सकती है, पर चलते रहने वाला ही आगे बढ़ता है। ठहरना मतलब हार मान लेना, चलते रहना मतलब जीवन को जीत लेना।









