एक बार की बात है, विनायकपुर नाम के गाँव में हरिराम नाम का एक व्यापारी रहता था। उसकी गिनती गाँव के सबसे अमीर लोगों में होती थी। उसका बड़ा मकान, कई बैलगाड़ियाँ, गोदामों में अनाज का अंबार, और हाथ में हमेशा चमकती हुई सोने की अंगूठियाँ — लेकिन दिल के दरवाज़े बंद थे।
हरिराम हर सुबह मंदिर जरूर जाता, पर वहाँ भी भगवान से यही मांगता— “हे प्रभु, मेरा व्यापार बढ़े, मेरा धन बढ़े, मेरा नाम ऊँचा हो।”
गाँव में जब कोई गरीब मदद के लिए आता, तो वह कह देता— “अरे, भगवान ने सबको हाथ-पैर दिए हैं, मेहनत करो, मांगने की क्या ज़रूरत?” गाँव वाले उससे खिन्न रहते, पर कोई खुलकर कुछ कह नहीं पाता।
वर्षा ऋतु आई। पहले तो हल्की फुहारें हुईं, फिर तीन दिन लगातार मूसलाधार बारिश हुई। गाँव के पास बहने वाली नदी उफान पर आ गई। देखते ही देखते खेत डूब गए, घर गिरने लगे, लोग जान बचाने को भागने लगे।
सैकड़ों परिवारों के पास खाने को कुछ नहीं बचा। वे हरिराम के पास दौड़े— “सेठजी, आपके पास तो अनाज भरा है, कुछ दे दो, बच्चे भूखे हैं।”
हरिराम ने द्वार से ही कहा, “माफ करना, गोदाम खोलते ही मेरा अनाज में सीलन आ जाएगी, मुझे नुकसान होगा। मैं किसी को नहीं दे सकता।” लोग मायूस होकर लौट गए।
तीन दिन बाद, बिजली गिरने से हरिराम के गोदाम में आग लग गई। तेज़ हवा से लपटें चारों ओर फैल गईं। देखते ही देखते, उसका सारा अनाज, कपड़े, धन-संपत्ति — सब जलकर राख हो गया।
अब हरिराम खाली हाथ था। वह गाँव वालों के घर जाकर बोला, “भाइयों, थोड़ा अनाज दे दो, मैं भूखा हूँ।” पर लोगों ने कहा, “सेठजी, जब हमें भूख लगी थी, आपने द्वार नहीं खोला। अब हमारे पास भी सीमित अनाज है।”
हरिराम टूट गया। वह सोच में पड़ गया कि कल तक मैं सबसे अमीर था, और आज मेरे पास खाने को दाना नहीं। आखिर कहाँ चूक हो गई?
उसी समय गाँव में एक वृद्ध साधु आए। हरिराम उनके पास पहुँचा और रोकर बोला— “महाराज, मेरे पास सब था—धन, घर, मान—पर आज कुछ नहीं बचा। मैं कहाँ गलत हो गया?”
साधु ने मुस्कराते हुए कहा— “बेटा, धन नदी के पानी जैसा है—कभी बढ़ता है, कभी घटता है। लेकिन शुभ कर्म, दया, और दान—ये जीवन की असली पूंजी हैं। जिसने इन्हें कमाया, वह कभी निर्धन नहीं होता। धन वहीं टिकता है जहाँ से दूसरों का भला होता है। तूने धन कमाया, पर पुण्य नहीं।”
हरिराम के आँसू रुक नहीं रहे थे। उसने हाथ जोड़कर कहा— “महाराज, अब मैं क्या करूँ?”
साधु बोले— “अब तू अपने धन को नहीं, अपने कर्म को बाँट। दान कर, सेवा कर, किसी भूखे को भोजन दे, किसी अनपढ़ को शिक्षा दे—यही तेरा पुनर्जन्म होगा।”
हरिराम ने उसी दिन संकल्प लिया। उसने श्रम के बल पर थोड़ा—बहुत धन जोड़ा और गाँव में एक “सेवा मंडल” बनाया। हर महीने गरीबों को भोजन बाँटता, बीमारों के लिए औषधि लाता, और बच्चों के लिए एक पाठशाला खुलवाई।
धीरे-धीरे उसका नाम फिर चमकने लगा — लेकिन इस बार धन से नहीं, दान से। लोग उसे अब “दयालु हरिराम” कहने लगे। हरिराम के चेहरे पर अब सच्ची शांति थी। वह कहता— “धन तो राख हो सकता है, पर सत्कर्म अमर रहते हैं। हमारी असली पूंजी वही है — शुभ कर्म और दान।”
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, धन अस्थायी है, लेकिन सत्कर्म सदा के साथी हैं। जो दूसरों की मदद करता है, वही जीवन में सच्चा सुख और सम्मान पाता है। धन साथ नहीं जाता, लेकिन सत्कर्मों की सुगंध अमर रहती है।








