धर्म

परमहंस संत शिरोमणि स्वामी सदानंद जी महाराज के प्रवचनों से—717

बहुत समय पहले की बात है। हिमालय की तलहटी में एक राज्य था — सौम्यनगर। यहाँ के राजा वीरेंद्र देव अपनी बुद्धि और दया के लिए प्रसिद्ध थे। वे यह मानते थे कि राजा का असली कर्तव्य अपने लोगों की रक्षा, सुख और सम्मान की चिंता करना है।

राजा रोज़ प्रजा के बीच जाते, गाँवों में घूमते, किसानों से उनकी फसल की बात करते, और बच्चों से पूछते — “पढ़ाई कैसी चल रही है?” लोग उन्हें राजा नहीं, “अपने जैसा इंसान” मानते थे।

एक बार सूखा पड़ा। नदियाँ सूख गईं, फसलें जलने लगीं। एक बूढ़ा किसान रोते हुए बोला,
“महाराज, इस बार हमारी खेती बर्बाद हो गई, बच्चों के लिए अन्न नहीं है।”

राजा ने बिना देर किए अपने महल के भंडार खोल दिए और घोषणा की — “पहले अन्न जनता को मिलेगा, बाद में राजमहल को।”

राजकुमार ने आश्चर्य से पूछा, “पिता जी, अगर सारा अनाज दे दिया, तो हम क्या खाएँगे?”

राजा मुस्कराए, “बेटा, जब हमारे लोग भूखे रहेंगे तो हमारा भोजन हमें आनंद नहीं देगा। जब वे मुस्कराएँगे, तभी हम तृप्त होंगे।”

राजा ने न केवल अन्न बाँटा, बल्कि गाँव के कुओं की मरम्मत, नहरों की खुदाई और पेड़ों की रोपाई का काम भी शुरू करवाया। कुछ महीनों बाद बारिश आई और सूखी धरती फिर से हरी हो उठी। किसानों ने आँसू भरी आँखों से कहा, “राजा ने हमें सिर्फ अनाज नहीं, उम्मीद भी दी है।”

एक वर्ष बाद, पड़ोसी राज्य तक्षकपुर ने हमला किया। राजा वीरेंद्र ने सेना को इकट्ठा किया, पर सबसे पहले बोला, “किसी भी निर्दोष नागरिक का नुकसान नहीं होना चाहिए। जो दूसरों की रक्षा करता है, वही सच्चा योद्धा है।”

युद्ध के दौरान एक जवान घायल हुआ। राजा स्वयं उसके पास पहुँचे, उसके घाव पर पट्टी बाँधी और कहा, “सैनिक, तुम्हारा दर्द मेरा दर्द है।”

यह दृश्य देखकर पूरी सेना में जोश भर गया। वे दोगुने उत्साह से लड़े और युद्ध जीत लिया। पर राजा ने कहा, “हमारा विजय उत्सव तब होगा जब दोनों राज्यों के घायल सिपाहियों को उपचार मिलेगा।” उन्होंने दुश्मन सैनिकों को भी दवा और भोजन दिलाया।

यह देखकर तक्षकपुर का राजा भावुक हो उठा और बोला, “ऐसा शत्रु तो मित्र से भी बढ़कर है।”
और दोनों राज्यों के बीच सदा के लिए शांति स्थापित हो गई।

कुछ समय बाद राजधानी में उत्सव हुआ। प्रजा ने राजा को स्वर्ण मुकुट पहनाने की इच्छा जताई।
राजा ने कहा, “मुकुट मेरे सिर पर नहीं, जनता के सिर पर होना चाहिए — क्योंकि मैं वही हूँ जो आप सबने बनाया है।”

उन्होंने एक छोटा बालक चुना — किसान का बेटा — और उसे मंच पर बुलाकर कहा, “यह बच्चा भविष्य है, इसका सम्मान मेरा सम्मान है।” सारा दरबार तालियों से गूंज उठा।

राजा का नाम पूरे देश में प्रसिद्ध हुआ, लेकिन उन्होंने कभी घमंड नहीं किया। वे हमेशा कहते,
“जो दूसरों की सुरक्षा, सुख और सम्मान की चिंता करता है, उसे भगवान स्वयं सफलता और आदर देते हैं।”

धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, सच्चा सम्मान और सफलता उस व्यक्ति को मिलती है जो अपने से पहले दूसरों की भलाई के बारे में सोचता है। जब हम दूसरों की मुस्कान की चिंता करते हैं, तो ईश्वर हमारी खुशियों की व्यवस्था खुद कर देता है।

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