एक नगर में एक विद्वान संत रहते थे—स्वामी कृपानंद। उनके पास रोज़ लोग जीवन की समस्याएँ लेकर आते थे। एक दिन एक व्यापारी पहुँचा, बोला— “स्वामीजी, मेरा मन बहुत परेशान रहता है। कभी किसी से जलन होती है, कभी दूसरों की गलती दिखती है, कभी खुद पर क्रोध आता है। क्या करूँ?”
स्वामी मुस्कुराए और बोले, “आओ, मेरे बगीचे में चलते हैं।”
वे दोनों बगीचे में पहुँचे। सुंदर फूल खिले थे, पर कुछ जगह खरपतवार (जंगली घास) भी उग आई थी। संत ने पूछा, “तुम्हें ये फूल कैसे लगे?”
व्यापारी बोला, “बहुत सुंदर हैं, लेकिन इन खरपतवारों ने सौंदर्य बिगाड़ दिया है।”
संत बोले,“बस यही बात तुम्हारे मन की है। तुम्हारे भीतर भी विचारों का एक बगीचा है—जहाँ शुभ विचार फूल हैं और निंदनीय विचार खरपतवार। अगर रोज़ निरीक्षण न किया जाए, तो यह खरपतवार अच्छे विचारों को ढक लेती है।”
उन्होंने आगे कहा,“हर दिन अपने मन को देखो—कौन-से विचार खुशबू दे रहे हैं और कौन-से बदबू। जो विचार दूसरों की निंदा, क्रोध या ईर्ष्या पैदा करें, उन्हें जड़ से उखाड़ दो। और उनकी जगह प्रेम, कृतज्ञता और सेवा के बीज बो दो। यही सच्चा मन-निर्माण है।”
व्यापारी ने यह बात दिल में बिठा ली। वह हर रात कुछ मिनट अपने विचारों की समीक्षा करने लगा— “आज मैंने क्या अच्छा सोचा, क्या गलत सोचा?” धीरे-धीरे उसके मन का बगीचा फिर से फूलों से भर गया—शांति, दया और प्रसन्नता से।
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, विचार हमारे जीवन का बगीचा हैं। यदि हम रोज़ उनका निरीक्षण न करें, तो निंदनीय विचार हमारी शांति को खा जाते हैं। पर यदि हम सजग रहकर उन्हें त्याग दें, तो जीवन में सुंदरता और सुकून दोनों लौट आते हैं।








