विंध्याचल पर्वत की शांत घाटियों में एक प्राचीन गुरु आश्रम था—ऋषि वरदान का। वे ज्ञान, धैर्य और क्षमा के लिए प्रसिद्ध थे। उनके आश्रम में अनेक शिष्य शिक्षा लेते थे, पर उनमें एक था—विपुल—बहुत तेज, परंतु दोष-दर्शी। उसे हर चीज में कमी दिखती थी। कोई शिष्य देर कर दे तो वह नाराज़, कोई गलती करे तो वह आलोचना करने लगे। उसके कारण कई शिष्य मन ही मन दुखी रहते थे।
एक दिन ऋषि वरदान ने उसे बुलाया और पूछा— “विपुल, क्या तुम खुश हो?”
विपुल बोला, “गुरुदेव, मैं खुश कैसे रहूँ? सब लोग गलतियाँ करते हैं। कोई ध्यान नहीं रखता। मैं सब में दोष देखता हूँ।”
ऋषि ने कहा— “कल एक कार्य है। पूरा करना, फिर मैं तुम्हें समाधान दूँगा।”
सुबह-सुबह गुरु ने विपुल को एक बड़ा शीशे का घड़ा दिया, जिसमें पानी भरा था।
घड़े की गर्दन बहुत पतली थी और गुरु ने कहा— “इसे पर्वत पर बने छोटे मंदिर तक ले जाओ। पर संभालकर—घड़ा टूटना नहीं चाहिए।”
विपुल घड़ा उठाकर चला। रास्ता ऊँचा-नीचा था, पत्थर थे, काँटेदार झाड़ियाँ थीं।
थोड़ी दूर जाकर दो साथी शिष्यों ने कहा— “अरे विपुल, रास्ता इधर से बेहतर है!”
पर वह चिढ़कर बोला— “तुम लोग हर बार सलाह लेकर गलती कराते हो! अपने काम से मतलब रखो।”वह बढ़ता गया, पर रास्ता कठिन था।
तभी एक बुज़ुर्ग स्त्री मिली, बोली— “बेटा, घड़ा आगे रख देना, थोड़ा विश्राम कर लो।”
पर विपुल ने सोचा—“इसको क्या पता! घड़ा टूट गया तो गुरु मुझे डाँटेंगे।” और वह आगे निकल गया।
घड़ा आखिर मंदिर तक पहुँच गया। विपुल राहत की साँस लेकर वापस लौटा।
ऋषि मुस्कराए और बोले— “विपुल, बहुत अच्छा। अब मुझे बताओ, रास्ते में कितने लोग तुम्हें मिले? उनके क्या-क्या दोष थे?”
विपुल ने कहा— “गुरुदेव, मैंने ध्यान नहीं दिया। मेरा सारा ध्यान तो बस घड़े को संभालने में लगा था। मैं किसी को देखकर दोष कैसे ढूँढता?”
ऋषि मुस्करा उठे— “बस यही तो मैं समझाना चाहता था। जब मन में ‘घड़े’ जैसा कोई बड़ा लक्ष्य होता है—अपना चरित्र, अपनी साधना, अपनी शांति—तो दूसरों के दोष दिखते ही नहीं।
“जो हर जगह लोगों के दोष खोजता है, उसका मन खाली होता है—जैसे बिना पानी का घड़ा।
पर जिसने अपना ‘घड़ा’ भीतर संभालना सीख लिया—धैर्य, क्षमा, प्रेम से भरा—उसे दूसरों की गलतियाँ छोटी और क्षमा योग्य लगती हैं।”
विपुल चुप रहा।
ऋषि आगे बोले— “बेटा, दोष ढूँढ़ना आसान है, पर मन की सफाई कठिन। दूसरों की गलती देखकर जो स्वयं को श्रेष्ठ समझ ले—वह अज्ञान में है। दूसरों की गलती देखकर जो उन्हें क्षमा कर दे—वह परम ज्ञान में है।”
फिर जो हुआ, उसने आश्रम को बदल दिया
उस दिन के बाद विपुल बदल गया। अब वह किसी को डाँटता नहीं था। कोई गलती करता, तो वह शांत स्वर में कहता— “कोई बात नहीं, चलो फिर से कोशिश करते हैं।”
धीरे-धीरे शिष्यों में भी सामंजस्य बढ़ गया। जहाँ पहले तकरार होती थी, वहाँ अब सहयोग होने लगा। आश्रम का वातावरण ऐसा हुआ जैसे वसंत आ गया हो—शांत, सुहावना, स्नेह से भरा।
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, दूसरों के दुर्गुण देखना मन को काटने जैसा है,और क्षमा करना मन को सींचने जैसा। दोष देखने से कोई नहीं सुधरता, पर प्रेम और क्षमा से हर हृदय पिघल सकता है।








