एक बार एक व्यापारी था—नाम था धर्मदास। व्यापार अच्छा चलता था, परिवार सुखी था, और जीवन में किसी चीज़ की कमी नहीं थी। पर समय हमेशा एक-सा नहीं रहता। अचानक मंदी आई, व्यापार घाटे में चला गया, उधार बढ़ गए, और खर्चे भी कम होने का नाम नहीं लेते थे।
धर्मदास का मन तनाव, चिंता और भय से भर गया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि रास्ता किस ओर है। जो भी सोचता, वही उलझन और बढ़ जाती।
घबराकर एक दिन वह पास के आश्रम में गया और संत से बोला— “गुरुदेव, चारों तरफ से आर्थिक दबाव है। व्यापार रुका पड़ा है, पैसा आने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा। क्या करूँ?”
संत मुस्कुराए, उसे पास बैठाया और कहा— “बेटा, मेरे साथ नदी किनारे चलो।”
दोनों नदी पहुँचे। संत ने धर्मदास को एक भारी पत्थर दिया और बोले— “इसे सिर के ऊपर उठाकर कुछ देर खड़े रहो।”
धर्मदास ने वैसा ही किया। कुछ ही देर में उसके हाथ काँपने लगे। वह बोला, “गुरुदेव, यह वजन अब सहा नहीं जा रहा, हाथ दुखने लगे हैं।”
संत बोले—“बिल्कुल यही स्थिति आर्थिक दबाव की है। जब तुम सारे बोझ को एक साथ सिर पर रख लेते हो, तब मन टूटने लगता है। लेकिन बोझ रखने के तरीके होते हैं, उन्हें समझो।”
फिर संत ने चार सरल लेकिन गहरे उपाय बताए—
1. बोझ को बाँटो, सब अकेले मत उठाओ
संत बोले— “अपने खर्च, काम और जिम्मेदारियों को एक-एक करके बांटो। पहले ज़रूरी—फिर उपयोगी—फिर बाद में किए जा सकने वाले।” धर्मदास ने समझा कि वह हर समस्या को एक साथ हल करने की कोशिश कर रहा था, इसलिए दबाव बढ़ रहा था।
2. खर्च कम करो, पर मन छोटा मत करो
संत ने कहा— “जैसे नदी सूख जाए तो लोग मिट्टी हटाकर पानी निकालते हैं। वैसे ही संकट में अनावश्यक खर्च घटाओ, पर अपनी आशा मत घटाओ।” धर्मदास ने बेवजह के खर्च रोक दिए और थोड़े से में काम चलाना शुरू किया।
3. नई दिशा तलाशो—संकट अक्सर अवसर बन जाता है
संत बोले— “जब पुराना रास्ता बंद हो जाए, तो समझ लेना कि नये रास्ते की तैयारी है।”
उन्होंने सलाह दी कि धर्मदास छोटा-मोटा कोई नया काम शुरू करे, जिससे नकदी प्रवाह बढ़ सके। धर्मदास ने अपने अनुभव से घर बैठे एक छोटी सी सेवा शुरू कर दी—और आश्चर्य से देखा कि धीरे-धीरे आय आने लगी।
4. मन को शांत किए बिना समाधान नहीं मिलता
संत ने कहा— “चिंता में मन अँधेरा हो जाता है, और अँधेरा कभी रास्ता नहीं दिखाता।
पहले मन शांत करो—फिर निर्णय लो।” धर्मदास ने रोज सुबह थोड़ा ध्यान और प्रार्थना शुरू की। धीरे-धीरे उसका मन स्थिर होने लगा।
कुछ महीनों में व्यापार भी पटरी पर आने लगा, उधार भी चुकने लगे और जीवन फिर से सामान्य हुआ।
धर्मदास फिर आश्रम आया और बोला— “गुरुदेव, आर्थिक दबाव हट गया।”
संत मुस्कुराए और बोले— “दबाव हटना महत्त्वपूर्ण नहीं था, महत्त्वपूर्ण यह था कि दबाव में टूटे बिना रास्ता ढूँढना तुमने सीख लिया।”
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, आर्थिक दबाव जीवन का हिस्सा है, लेकिन मन का दबाव हमारी गलती है। बोझ को भागों में बाँटकर, खर्च नियंत्रित कर, नए अवसर ढूँढकर और मन को शांत रखकर कोई भी संकट पार किया जा सकता है। जो व्यक्ति संकट में स्थिर रहता है, वही भविष्य में सबसे मजबूत बनता है।








