एक बार एक संत अपने शिष्यों के साथ नदी किनारे बैठे थे। शाम का समय था, हल्की हवा चल रही थी। संत ने अपने पास पड़ी एक छोटी कटोरी उठाई और उसमें नदी का जल भर लिया। फिर मुस्कुराते हुए बोले— “जिस मन में अशांत विचार भरे हों, वह इस मटमैले पानी जैसा होता है—कुछ भी साफ़ दिखाई नहीं देता।”
संत ने कटोरी को धीरे-धीरे हिलाया। पानी और गंदा हो गया।
“अब देखो, यह उसी मन का रूप है जिसमें नकारात्मकता, भय, क्रोध और चिंता हिला-डुलाकर उथल-पुथल मचाते रहते हैं। ऐसे मन से ना निर्णय सही होता है, ना जीवन में संतुष्टि मिलती है।”
कुछ देर बाद संत ने कटोरी को बिल्कुल स्थिर रखा। धीरे-धीरे गंदगी नीचे बैठने लगी और पानी साफ दिखाई देने लगा।
संत बोले— “जब मन को अच्छे विचार दिए जाते हैं—सत्य, दया, करुणा, कृतज्ञता और सकारात्मक सोच—तो मन स्थिर होने लगता है। स्थिर मन में संतोष स्वयं जन्म लेता है।”
फिर उन्होंने अंतिम बात कही— “संतुष्टि बाहर से नहीं मिलती, वह भीतर अच्छे विचारों के बीज से उगती है। अच्छे विचार मन को शांति देते हैं, और शांत मन जीवन को सुंदर बना देता है।”
शिष्य संत की बात समझ गए— मन जितना अच्छा, जीवन उतना ही सुखमय।








