महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था। इस भीषण युद्ध में कौरवों की विशाल सेना पूरी तरह नष्ट हो चुकी थी। दुर्योधन बुरी तरह घायल था और उसके पक्ष में केवल तीन योद्धा ही जीवित बचे थे- कृपाचार्य, कृतवर्मा और अश्वत्थामा। दूसरी ओर पांडवों की सेना में भी भारी नुकसान हुआ था, लेकिन फिर भी कुछ सेना अभी भी बची हुई थी।
गंभीर रूप से घायल दुर्योधन के पास कृपाचार्य, कृतवर्मा और अश्वत्थामा खड़े थे। दुर्योधन का मन दुख और ग्लानि से भरा हुआ था। उसने इन तीनों से कहा कि हमारी पूरी सेना समाप्त हो गई है, लेकिन हम एक भी पांडव को मार नहीं पाए। इससे बड़ा कष्ट मेरे जीवन में कभी नहीं रहा।
दुर्योधन के शब्दों ने अश्वत्थामा के मन में बदले की आग भड़का दी। उसने निश्चय किया कि वह पांडवों से बदला लेगा। रात के अंधेरे में वह चुपचाप पांडवों के शिविर में पहुंचा और द्रौपदी के पांच पुत्रों की हत्या कर दी।
अपने पुत्रों की मृत्यु का समाचार सुनकर द्रौपदी का हृदय शोक से भर गया। उसका दुख असहनीय था, लेकिन फिर भी उसने अपने विवेक को खोने नहीं दिया। द्रौपदी के दुःख को देखकर अर्जुन ने प्रतिज्ञा की कि वह अश्वत्थामा को पकड़कर लाएगा और उसे दंड दिलाएगा।
युद्ध के बाद अर्जुन ने अश्वत्थामा को पराजित करके बंदी बना लिया और उसे द्रौपदी के सामने प्रस्तुत कर दिया। अर्जुन ने कहा कि पांचाली, अब इसका निर्णय तुम करो। इसे क्या दंड दिया जाए?
द्रौपदी ने अश्वत्थामा की ओर देखा और उसे स्मरण हुआ कि वह गुरु द्रोणाचार्य का पुत्र है। उसने शांत स्वर में कहा कि यदि इसे मार दिया गया, तो इसकी माता को वही दुख सहना पड़ेगा जो मैं सह रही हूं। किसी और मां को ऐसी पीड़ा देना उचित नहीं है। गुरु-पुत्र का वध नहीं होना चाहिए।
द्रौपदी के इस निर्णय से सभी आश्चर्यचकित रह गए। स्वयं श्रीकृष्ण ने मन ही मन इस निर्णय की सराहना की, क्योंकि ये गुस्से पर विवेक की विजय थी। ये जीवन में शांति पाने की राह में बढ़ाया गया एक कदम था। इसके बाद श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा के माथे से मणि निकाल ली और कलियुग के अंत तक भटकते रहना का शाप दे दिया।
धर्मप्रेमी सुंदरसाथ जी, जीवन में जब सबसे बड़ा दुख आता है, तभी हमारे असली संस्कार और सोच सामने आते हैं। द्रौपदी ने असहनीय पीड़ा में भी धैर्य नहीं खोया। जीवन प्रबंधन का पहला नियम है, भावनाओं को नियंत्रित करना। कुछ निर्णयों का प्रभाव केवल वर्तमान पर नहीं, भविष्य में दिखाई पड़ता है।








