धर्म

परमहंस स्वामी सदानंद के प्रवचनों से-2

जीवन में उत्थान और पतन चलता ही रहता है। भौतिक सुख-सुविधाएं जुटाने के प्रयासों में ऐसा हो तो आश्चर्य की बात नहीं है, लेकिन आध्यात्मिक यात्रा में भी ऐसा हो जाता है तो इसकी चिंता पालना चाहिए। कई बार पतन के बाद भी उत्थान का क्रम बन जाता है, लेकिन जीवन की कुछ स्थितियां ऐसी होती हैं कि पतन पर पहुंचकर आदमी उत्थान पर पहुंचना ही नहीं चाहता।
इसका उदाहरण है रावण। रावण एक ऐसा पात्र है, जिसको कई बार अनेक पात्रों ने अपने-अपने स्तर पर समझाया था। हनुमानजी, अंगद, शूर्पणखा, मंदोदरी, मारीच जैसे लोगों ने उसे समझाया, लेकिन उसे समझ में नहीं आया। इन वैचारिक रोगों का वर्णन करते हुए लिखा है कि-
‘मोह सकल व्याधिन कर मूला।’
मोह ही मूल है और रावण साक्षात मोह का प्रतीक है। मेघनाथ काम है और शूर्पणखा अंदर की वासना है। रावण को मेघनाथ और शूर्पणखा दोनों बहुत प्यारे थे। शूर्पणखा का अर्थ है जिसके नाखून बड़े हों। इंद्रियों में जो वासनाएं होती हैं, उसकी तुलना नाखूनों से की जाती है। यानी एक सीमा तक वासना ठीक है, उसके बाद नाखूनों को काट देना चाहिए। जो अपने नाखून नहीं काटेगा, समाज में उसका जीवन अमर्यादित हो जाएगा। कुछ लोगों का मानना है कि रावण ने कुछ गलत नहीं किया था। उसकी बहन की नाक काटे जाने पर उसने श्रीराम की पत्नी का हरण कर लिया। शूर्पणखा ने श्रीराम-लक्ष्मण से विवाह का प्रस्ताव रखा, इसमें क्या गलत था।
इस प्रसंग को लोग गहराइयों में नहीं देखते। शूर्पणखा ने पूरे समय झूठ बोला था, छल किया था। रावण ने शूर्पणखा यानी छल का पक्ष लिया। जो छल का पक्ष लेता है, वह रावण के समान होता है और पतन में गिरने के बाद उत्थान की संभावना को रावण ने स्वयं नकार दिया था।

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