एक सन्यासी थे जो हिमालय पर रहते थे। वह बिना किसी रोक टोक के सब जगह जाते थे। लोग उनका प्रेम से स्वागत करते थे। हर दिन वह सन्यासी राजा के महल में दोपहर का भोजन खाने के लिये जाते थे। रानी उन्हें सोने की थाली और कटोरी में भोजन परोसती थी। वे भोजन करते थे और वापस चले जाते थे।
एक दिन भोजन के उपरान्त उन्होंने चांदी का गिलास और सोने का चम्मच को अपने पास रखा लिया और निकल गये। उन्होंने किसी को बताया तक नहीं कि उन्हें उनकी आवश्यकता थी।महल में लोग अचंभित थे – “संत को क्या हो गया है?, उन्होंने कभी कोई भी चीज इस तरह से नहीं उठाई तो फिर आज क्या हुआ? और उन्होंने किसी को बताया भी नही?”, यह सब वह सोच रहे थे । तीन दिन के उपरान्त उन्होंने वह चीजें वापस ला दी । यह और भी आश्चर्यजनक था।
राजन ने कुछ बुद्धिमान लोगों को बुलवाया और संत के इस व्यवहार की समीक्षा करने को कहा। पंडितों और विद्वानों ने यह जांच की उस दिन संत को भोजन में क्या परोसा गया था। उनको यह पता चला कि कुछ चोरों और डकैतों के यहाँ से कुछ खाने का समान जब्त किया गया था, जिसको पका कर संत को परोसा गया; इसी के कारण उन्होंने चोरी करी।
कहने का भाव यह है कि हमें अपनी मेहनत से प्राप्त धन से घर में पका हुआ खाना ही खाना चाहिए। क्योंकि खाने का सीधा प्रभाव हमारे मन पर पड़ता है। पुरानी कहावत है कि जैसा खाए अन्न—वैसा होए मन…इसलिए हमें सात्विक खाना ही खाना चाहिए।