आदमी चलता ही रहता है हार में, जीत में; सफलता में, असफलता में; प्रेम में, विरह में। वह क्या है जो उसे चलाए रखता है?
दो चीजें: अहंकार और आशा। एक तो अहंकार चलाए रखता है। क्योंकि अहंकार कहता है, टूट जाना मगर झुकना मत, मिट जाना मगर रुकना मत। एक तो अहंकार चलाए रखता है। कुछ भी हो जाए, अहंकार कहता है, चले चले जाओ। लड़ते रहो, जूझते रहो। ‘अगर हार ही बदी है किस्मत में, तो भी लड़ते लड़ते ही हारना। हार स्वीकार मत करना। अहंकार हार को स्वीकार नहीं करने देता। और उसी कारण हम बुरी तरह हार जाते हैं। जो हार को स्वीकार कर लेता है, उसकी तो जीत शुरू हो गयी। कहते हैं न हारे को हरिनाम। जिसने हार को अंगीकार कर लिया, उसके जीवन में तो हरि उतरना शुरू हो जाता है। संसार में जीत तो होती ही नहीं, हार ही होती है। जीत हो ही नहीं सकती। जीत संसार का स्वभाव नहीं है। वह छोटी मोटी जीत, जो तुम्हें दिखायी पड़ती है, बड़ी हारों की तैयारी है और कुछ भी नहीं। वह वैसे ही है जैसे जुआरी जुआ खेलने जाता है। कभी कभी जीत भी जाता है। वह जीत सिर्फ बड़ी हार के लिए आकर्षण है।
एक आदमी के संबंध में मैं पढ़ रहा था। उसे दस हजार डालर वसीयत में मिल गए। उसने सोचा कि एक बार जुआ खेलकर जितने बढ़ सकें ये डालर उतना बढ़ा लेना उचित है, ताकि जिंदगीभर के लिए फिर झंझट ही काम करने की मिट जाए। वह अपनी पत्नी को लेकर जुआघर गया। वह सब हार गया, सिर्फ दो डालर बचे। वह भी इसलिए बचा लिए थे कि होटल में लौटकर जाने के लिए रास्ते में टैक्सी का किराया भी तो चुकाना पड़ेगा।
वह बाहर आया, बाहर उसने पत्नी से कहा कि सुन, आज पैदल ही चल लेंगे, यह दो और लगा लेने दे। नहीं तो मन में एक बात खटकती रह जाएगी कि कौन जाने, यह दो के लगाने से जीत हो जाती! पत्नी ने कहा, अब तुम जाओ, मैं तो चली।
वह आदमी भीतर। उसने दो डालर दाव पर लगाए और जीत गया। और चला गया। हजार डालर तो दूर, उसके पास एक लाख डालर थे आधी रात होते-होते। फिर उसने सोचा, अब आखिरी दाव लगा लूं। उसने वह एक लाख डालर भी दाव पर लगा दिए अगर जीत जाता तो बीस लाख हो जाते मगर वह हार गया।
आधी रात पैदल ही होटल वापस लौटा, दरवाजा खटखटाया, पत्नी ने पूछा, क्या हुआ? उसने कहा, वह दो डालर हार गया। वह दो डालर हार गया। उसने सोचा, अब एक लाख की बात कहने का कोई मतलब ही नहीं। इतनी देर कहां रहे फिर? उसने कहा, वह पूछ ही मत! अब वह दुख छेड़ ही मत! इतना तू जान लिए दो डालर जो थे, वह भी हार गया हूं।
जुए का खेल जैसा है जगत। यहां कभी कभी जीत भी होती है ऐसा नहीं है कि नहीं होती, जीत होती, मगर हर जीत किसी और बड़ी हार की सेवा में नियुक्त है। हर जीत किसी बड़ी हार की नौकरी में लगी है। यहां कभी कभी सुख भी मिलता है, नहीं कि नहीं मिलता, लेकिन हर सुख किसी बड़े दुख का चाकर है। हर सुख तुम्हें किसी बड़े दुख पर ले आएगा। सुख भरमाता है। सुख कहता है, सुख हो सकता है, घबड़ाओ मत, भागो मत। तो आशा बनी रहती है कि शायद अभी हुआ, कल फिर होगा, परसों फिर होगा।
तो एक तो आशा चलाती, एक अहंकार चलाता।
आदमी बहुत बार जागने जागने के करीब आ जाता है। तुम्हारा कोई प्रियजन मर गया। बड़े करीब होते हो तुम बुद्धत्व के उस घड़ी में।
जब तुम मौत के दुख में होते हो, बुद्धत्व बहुत करीब होता है। अगर पकड़ लो सूत्र तो छलांग लग जाए। लेकिन तुम सूत्र पकड़ नहीं पाते, तुम दुख को झुठला लेते हो। तुम अपने को समझा लेते हो, मना लेते हो। तुम फिर नयी नयी आशाओं के सपनों पर सवार हो जाते हो। दुख झकझोरता है, लेकिन तुम उस झकोरे को भी समा लेते हो अपने में। सात्वना बांध लेते हो, सोचते हो, फिर सब ठीक हो जाएगा, फिर वसंत आएगा, फिर फूल लगेंगे