धर्म

ओशो : कैव्लय उपनिषद 191

एक चित्रकार सोचता है मैं मिट ही जाऊंगा, मेरे चित्र तो रहेंगे। मूर्तिकार सोचता है,मैं मिट जाऊंगा , मेरी मूर्ति तो रहेगी। संगीतज्ञ सोचता है, मैं मिट जाऊंगा, लेकिन मेरा संगीत रहेगा। यह भी अमरता को खोजने की विधियां है। लेकिन जब मैं ही मिट जाऊंगा, मैं पूरा-का-पूरा मिट जाता हूं, तो मेरा अंश है, मेरी जो संतान है, वह भी कितनी देर बच सकेंगी? और जब मैं ही मिट जाता हूं, तो मेरा चित्र और मेरी बनायी मूति और मेरे हाथ से निर्मित साहित्य और मेरा काव्य, वह भी कितनी देर तक बच सकेगा? वह भी मिट जाएगा।
वस्तुत: इस जगत में समय धारा में जो भी पैदा होता है, वह मिटेगा ही। समय के भीतर मृत्यु सुनिश्चत घटना है। समय के भीतर मृत्यु होगी ही। समय में जो भी घटेगा, वह ही मिटेगा।
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असल में बनना और मिटना एक ही चीज के दो छोर हैं। जब कोई चीज बनती है, तो मिटना शुरू हो जाती है। और जब कोई जन्मता है, तो मृत्यु की यात्रा शुरू हो जाती है। जब प्रारंभ हो गया, तो अंत भी होगा। वह अंत कितनी देर से होगा, यह गौण है। इसका मूल्य भी नहीं। कितनी देर से हो, लेकिन अंत होगा ही। बुद्ध ने कहा है, फिर मैं सात वर्ष में मरूं, कि सत्तर में, कि सात सौ वर्ष में इससे कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता । जब मैं मरूंगा ही, तो जन्म के साथ ही मेरे भीतर मृत्यु बीज भी आ गया। कितनी देर, गौण है। और देर में भी मैं क्या करूंगा? अगर मृत्यु पीछे खड़ी ही है, तो कोई सात वर्ष मृत्यु से भयभीत होकर जिएगा, कोई सत्तर वर्ष, कोई सात वर्ष, लेकिन इस जीने में हम करेंगे क्या? जब द्वार पर मृत्यु निरंतर खड़ी ही हो, और किसी भी क्षण घटित हो ,तो यचह जीवन एक कांपता हुआ जीवन होगा।
महावीर ने कहा कि जैसे ओस की बूंद घास के पत्ते पर सुबह पड़ी हो, हवा के झोंके में कंपती हो। कितनी देर सधी रेहेगी? कितनी देर हवा के झोंको से बचेगी? कितनी देर अपने को संभालेगी घास की पत्ती की नोक पर ? गिरेगी ही। अभी, थोड़ी देर बाद, गिरेगी। महावीर ने कहा है, आदमी का जीवन भी ऐसा ही पत्ते की नोक पर सधी हुई ओंस की बूदं जैसा हैं। अभी-अभी , अभी गिरता ही है। गिर ही जाएगा।
आदमी के पास जितने भी उपाय किये हैं अमृत को पाने के, वे सभी निष्फल है। सिर्फ एक उपाय निष्फल नहीं गया है।
उस परमतत्व को धन संतान, अथवा कर्म के द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता। त्याग ही एक ऐसा मार्ग है, जिसके द्वारा ब्रहा्रज्ञानियों ने अमृत को प्राप्त किया है। स्वर्गलोक से भी ऊपर हृदय की गूफा में स्थित वह परम तत्व आलोकित है, जिसे निष्ठावान साधक ही प्राप्त कर सकते हैं।
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