हिसार

स्वामी राजदास : त्याग ​कैसा ​हो???

एक मित्र मेरे पास आए। पत्नी को साथ लेकर आए थे। क्योंकि जरा उन्हें मुश्किल लगा होगा कि अपना परिचय खुद ही कैसे दें। तो पत्नी ने उनका परिचय कराया। पत्नी ने कहा कि यह बड़े दानी हैं। एक लाख रूपया तो अब तक दान कर चुके हैं। पति ने तिरछी आंख से पत्नी को देखा और कहा लाख, अब तो एक लाख दस हजार पर संख्या पहुंच चुकी है। यह जो त्याग है- यह धन ही है। यह नये तरह का धन है। और यह ज्यादा सुविधापूर्ण है। इसको चोर चुरा नहीं सकते। इसको सरकारें बदल जाएं तो इस पर कोई असर नहीं पड़ेगा।
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मैंने उन मित्र से कहा, कि अपने बड़ी होशियारी की, आप कुशल है। जो आपके पास एक लाख दस हजार रूपए थे, वे चोर भी ले जा सकते थे, डाका भी पड़ सकता था, सरकार टैक्स लगा सकती थी, समाजवाद आ सकता था, कुछ भी हो सकता था। अब आप पर कोई डाका नहीं पड़ सकता। कोई साम्यवाद-समाजवाद आपसे छीन नहीं सकता। रीढ़ उनकी टिकी थी कुर्सी से, सीधी हो गयी। उन्होंने कहा, आप बिलकुल ठीक कहते हैं । इसलिए तो त्यागा है कि इसको मृत्यु भी नहीं छीन सकती। यह पुण्य है। इसको अब संसार की कोई शक्ति नहीं छीन सकती। धन को उन्होंने पुण्य में बदल लिया।
पुण्य का अर्थ है: ऐसा धन जो परलोक में भी चलेगा। और क्या अर्थ होता है। पुण्य का अर्थ है, ऐसा धन, जिसका सिक्का यही मान्य नहीं है, परलोक में भी चलेगा। अब यह पूंजी को लेकर, इस बैलेंस को लेकर परलोक में प्रवेश करेंगे। और समस्त शास्त्र-तथाकथित शास्त्र-लोगों को सही समझाते है कि यहां छोड़ो तो वहां मिलेगा। यहां छोड़ोगे तो वहां दस हजार गुना मिलेगा। उस मिलने की आशा में लोग छोड़ते है। लोभ के लिए लोग त्याग करते हैं। पाने के लिए छोड़ते हैं। तो छोडऩा ही नहीं हुआ, छोडऩा असंभव है। इस व्यवस्था में छोडऩा असंभव है। छोडऩे का अर्थ त्याग करने को धन बना लेना नहीं है।
छोडऩे का अर्थ यह जानना कि धन—धन ही है। छोडऩे का अर्थ, त्याग का अर्थ है कि ऐसी संपदा नहीं है जो संपदा हो,परलोक में सपंदा हो। संपदा है ही नहीं। इस भाव में प्रतिष्ठित हो जाना कि कोई धन नहीं है मेरे पास, और कोई धन मेरा नहीं है, मैं निर्धन हूं।
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