एक सेठ का लडक़ा बाहर विदेश से पढक़र अपने देश लौटा। उस समय नव-रात्रों का आयोजन चल रहा था। सेठ जी बड़ा खुश हुआ कि अब कि बार पंडितजी से नव-रात्रों का पूजन मैं नहीं, बल्कि मेरा बेटा करवायेगा। प्रात:काल पंडितजी आए और पूजन करवाने आसन पर बैठ गए और लडक़े से कहा बेटे,पूजा करवानी है । सर्व प्रथम हाथ धोकर आओ मेरे सामने आसन पर बैठ कर विधि विधान से पूजा करवाओ। हाथ धोकर आसन पर बैठ गया।
पंडितजी ने हाथ में सुपारी ली और उसके नाल लपेटा और लडक़े को देते हुए कहा लो बेटे, गणेश जी को विराजित करो। लडक़े ने पूछा, गणेश जी हैं कहां? बेटे इसी सूपारी को गणेश जी मान लो। बात समझ में आई नहीं,फिर भी पिताजी के कहने से जैसे जैसे पंडित ने कहा, उसी के अनुसार पूजा क्रिया करता चला गया।
स्नान की बारी आई तो पंडित जी ने जल दिया और कहा,इस गंगा-जल से गणेश जी को स्नान करवाओ, तो लडक़े ने कहा,हे गणेश देवता इस टंकी के पानी को गंगा -जल मानकर स्नान कर लो।
वस्त्र की जगह मोली का धागा चढ़ाया। इस प्रकार नौ दिनों तक जैसे पंडितजी ने कहा उसी के अनुसार पूजा करवाता गया। पूजाक्रिया पूर्ण हुई अब दक्षिणा देने की बारी आई, लडक़ा पढ़ा-लिखा बुद्धिमान् था, जेब में से सिगरेट की डब्बी निकाली और उसमें से चमकीला सफेद रंग का कागज निकाला और पंडित को देते हुए कहा,महाराजजी यह लिजिए आपकी दक्षिणा।
यह क्या? महाराज मैं नौ दिनों से आपकी आज्ञानुसार प्रत्येक नकली चीज को असली मानता आया हूँ, तो क्या आप आज इसको चांदी जैसे चमकीले कागज को सौ का नोट नहीं मानोंगे?
सेठ जी ने बेटे करे समझाया और कहा देवता किसी से किसी वस्तुत की अपेक्षा नहीं रखते, केवल भाव प्रसन्न हो जाते हैं,क्योंकि देवताओं का शरीर दिव्य होता है,परन्तु जीव का शरीर पंच भौतिक है, इसलिए केवल भाव से जीव का व्यवहार नहीं चलता। इसलिए बेटे हम जीव है। व्यवहार की दृष्टि से हमें दक्षिणा देनी चाहिए। बात समझ में आने पर सेठ के लडक़े ने पंडित जी को पूरी दक्षिणा देकर प्रणाम किया।