जवानी में तुलसीदासजी अपनी पत्नी पर बड़े आसक्त थे। एक बार उनकी पत्नी अपने मायके गई तो उनसे उनका वियोग सहा नहीं गया, विरह से उन्मत्त हो गए और रात को ही ससुराल की ओर चल दिए। वर्षा का मौसम था,मूसलाधार वर्षा हो रही थी,नदी में बाढ़ हुई थी,चारों तरफ अन्धकार ही अन्धकार था।
नदी में तैरता हुआ एक शव आया। उन्होंने समझा, शायद लकड़ी का टुकड़ा है। उस पर सवार होकर नदी पार कर ली। आगे जाकर देखा तो ससुराल के घर दरवाजे बन्द थे। रात के बारह बजे खटखटाना उचित नहीं समझा अत: खिडक़ी में से अन्दर जाना चाहा। एक सर्प लटक रहा था। उसी को रस्सी मानकर ऊपर चढ़ गए और पत्नी के कमरे में पहूँच गए।
पत्नी ने अचानक इस प्रकार अपने कमरे में पति को देखा तो सहम गई और अनायास मुंह से निकल गया- हे स्वामी इतनी रात को कितनी मुसीबतों का सामना करके आप आए हैं,कोई देखेगा तो क्या कहेगा?
हे नाथ,मेरी इस हाड़ माँस से बने हुए शरीर पर आपकी इतनी प्रीति हैं, इससे आधा प्रेम भी यदि आप श्रीराम से करते तो अवश्य ही संसार के जन्म -मरण से मुक्त हो जाते,आपका उद्धार हो जाता।
तुलसीदास को इस एक बात से ज्ञान मिल गया और उसके बाद राम की भक्ति में लीन हो गए और राम को साक्षत पा भी लिया। इसलिए प्रेमी सुंदरसाथ जी,ध्यान रखना ज्ञान का उदय कभी भी किसी भी समय और किसी के भी द्वारा हो सकता है।