धर्म

सत्यार्थप्रकाश के अंश—21

राजा और राजसभा अलब्ध की प्राप्ति की इच्छा,प्राप्त की प्रयत्न से रक्षा करे रक्षित को बढ़ावे और बढ़े हुए धन को वेदविद्या,धर्म का प्रचार,विद्यार्थी वेदमार्गोपदेशक तथा असमर्थ अनाथों के पालन में लगावे। इस चार प्रकार के पुरूषार्थ के प्रयोजन का जाने। आलस्य छोडक़र इस का भलीभांति नित्य अनुष्ठान करे। दण्ड से अप्राप्त की प्राप्ति की इच्छा,नित्य देखने से प्राप्त की रक्षा, रक्षित को वृद्धि अर्थात् ब्याजादि से बढ़ावे और बढ़े हुए धन का पूर्वोक्त मार्ग में नित्य व्यय करे। कदापि किसी के साथ छल से न वर्ते किन्तु निष्कपट होकर सब से वत्र्ताव रखे और नित्यप्रति अपनी रक्षा कर के शत्रु के किये हुए छल को जान के निवृत्त करे। कोई शत्रु अपने छिद्र अर्थात् निर्बलता को न जान सके और स्वयं शत्रु के छिद्रों को जानता रहैं, जैसे कछ़आ अपने अंगो को गुप्त रखता हैं वैसे शत्रु के प्रवेश करने के छिद्र को गुप्त रखे। जैसे बगुला ध्यानावस्थित होकर मच्छी पकडऩे को ताकत है वैसे अर्थसंग्रहण का विचार किया करे,द्रव्यादि पदार्थ और बल की वृद्धि कर शत्रु को जीतने के लिये सिंह के समान पराक्रम करे। चीता के समान छिपकर शत्रुओं को पकड़े और समीप आये बलवान् शत्रुओं से सस्सा के समान दूर भाग जाय और पश्चात् उन को छल से पकड़े। जीवन आधार न्यूज पोर्टल के पत्रकार बनो और आकर्षक वेतन व अन्य सुविधा के हकदार बनो..ज्यादा जानकारी के लिए यहां क्लिक करे।
इस प्रकार विजय करने वाले सभापति के राज्य में जो परिपन्थी अर्थात् डाकू लूटेरे हों उन को मिला लेना दाम कुछ देकर फोड़ तोड़ करके वश में करे। और जो इनसे वश में न हों तो अतिकठिन दण्ड से वश में करे। जैसे धान्य का निकालने वाला छिलकों को अलग कर धान्य की रक्षा करता अर्थात् टूटने नहीं देता है वैसे राजा डाकू चोरों को मारे और राज्य की रक्षा करे। जो राजा मोह से, अविचार से अपने राज्य को दुर्बल करता है,वह राज्य और अपने बन्धुसहित जीवन से पूर्व ही शीघ्र नष्ट भ्रष्ट हो जाता है।जैसे प्राणियों के प्राण शरीरों के कृशित करने से क्षीण हो जाते हैं वैसे ही प्रजाओं को दुर्बल करने से राजाओं के प्राण अर्थात् बलादि बन्धुसहित नष्ट हो जाते हैं।इसलिये राजा और राजसभा राजकार्य की सिद्धि के लिये ऐसा प्रयत्न करें कि जिस से राजकार्य यथावत् सिद्ध हों। जो राजा राज्यपालन में सब प्रकार तत्पर रहता हैं उसको सुख सदा बढ़ता है। पार्ट टाइम नौकरी की तलाश है..तो यहां क्लिक करे।
इसलिए दो तीन,पांच और सौ ग्रामों के बीच में राजस्थान रखें जिस में यथायोग्य भृत्य अर्थात् कामदार आदि राजपुरूषों को रखकर सब राज्य के कार्यो को पूर्ण करे।एक-एक ग्राम में एक-एक प्रधान पुरूष को रखे उन्हीं दश ग्रामों के ऊपर दूसरा, उन्हीं वीश ग्रामों के ऊपर तीसरा, उन्हीं सौं ग्रामों के ऊपर चौथा और उन्हीं सहस्त्र ग्रामों के ऊपर पांचवां पुरूष रखे। अर्थात् जैसे आजकल एक गा्रम में एक पटवारी,उन्हीं दश ग्रामों में एक थाना और दो थानों पर एक बड़ा थाना और उन पांच थानों पर एक तहसील और दश तहसीलों पर एक जिला नियत किया है और वही अपने मनु आदि धर्मशास्त्र से राजनीति का प्रकार लिया है।

इसी प्रकार प्रबन्ध करे और आज्ञा देवे कि वह एक-एक ग्रामों का पति गा्रमों में नित्यप्रति जो-जो दोष उत्पन्न हों उन-उन को गुप्तता से दश ग्राम के पति को विदित कर दे और वह दश ग्रामाधिपति उसी प्रकार वीस ग्राम के स्वामी को दश ग्रामों का वर्तमान नित्यप्रति देवे।
और बीस ग्रामों का अधिपति बीस ग्रामों के वर्तमान शतग्रामाधिपति को नित्यप्रति निवेदन करे। वैसे सौ-सौ ग्रामों के पति आप सहस्त्रधिपति अर्थात् हजार ग्रामों के स्वामी को सौ-सौ ग्रामों के वत्र्तमान प्रतिदिन जनाया करें। और वे सहस्त्र-सहस्त्र के दश अधिपति दशसहस्त्र के अधिपति को और वे दश-दश हजार के दश अधिपति लक्षग्रामों की राज्यसभा को प्रतिदिन का वर्तमान जनाया करें। और वे सब राजसभा महाराजसभा अर्थात् सार्वभौमचक्रवर्ति महाराजसभा में सब भूगोल का वत्र्तमान् जनाया करें।
और एक-एक दश-दशसहस्त्र ग्रामों पर दो सभापति वैसे करें जिन में एक राजसभा में दूसरा अध्यक्ष आलस्य छोडक़र सब न्यायाधीशादि राजपुरूषों के कामों को सदा घूमकर देखते रहैं। बड़े-बड़े नगरों में एक-एक विचार करने वाली सभा सुन्दर उच्च और विशाल जैसा कि चन्द्रमा है वैसा एक-एक घर बनावें,उस में बड़े-बड़े विद्यावृद्ध कि जिन्होंने विद्या से सब प्रकार की परीक्षा की हो बैठकर विचार किया करें। जिन नियमों से राजा और प्रजा की उन्नति हो वैसे-वैसे नियम और विद्या प्रकाशित किया करे। जो नित्य घूमनेवाला सभापति हो उसके अधीन सब गुप्तचर अर्थात् दूतों को रक्खें। जो राजपुरूष और प्रजापुरूषों के साथ नित्य सम्बन्ध रखते हों और वे भिन्न-भिन्न जाति के रहैं,उन से सब राज और राजपुरूषों के सब दोष और गुण गुप्तरीति से जाना करें,जिनका अपराध हो उन को दण्ड और जिन का गुण हो उनकी प्रतिष्ठा सदा किया करे। राजा जिन को प्रजा की रक्षा का अधिकार देवे वे धार्मिक सुपरिक्षित विद्वान् कुलीन हों उनके अधीन प्राय: शठ और परपदार्थ हरनेवाले चोर डाकुओं को भी नौकर रख के उन को दुष्ट कर्म से बचाने के लिये राजा के नौकर करके उन्हीं रक्षा करने वाले विद्वानों के स्वाधीन करके उन से प्रजा की रक्षा यथावत् करे।
जो राजपुरूष अन्याय से वादी प्रतिपवादी से गुप्त लेके पक्षपात से अन्याय करे उन का सर्वस्वहरण करके यथायोग्य दण्ड देकर ऐसे देश में रखे कि जहाँ से पुन:लौटकर न आ सके क्योंकि यदि उस को दण्ड न दिया जाए तो उस को देख के अन्य राजपुरूष भी ऐसे दुष्ट काम करें और दण्ड दिया जाय तो बचे रहैं। परन्तु जितने से उन राजपुरूषों का योगक्षेम भलीभांति हो और वे भलिभांति धनाढय भी हों उतना धन वा भुमि राज की ओर से
मासिक व वार्षिक अथवा एक बार मिला करे और वे वृद्ध हों उन को भी आधा मिला करे परन्तु यह ध्यान में रखे कि जब तब वे जियें तब तक वह जीविका बनी रहै पश्चात् नहीं,परन्तु इन सन्तानों का सत्कार वा नौकरी उन के गुण के अनुसार अवश्य देवे और जिस बालक के जब तक समर्थ हों उन की स्त्री जीती हो तो उन के निर्वाहर्थ राज्य की ओर से यथायोग्य धन मिला करे। परन्तु जो उस स्त्री वा लडक़े कुकर्मी हो जायें तो कुछ भी न मिले, ऐसी नीति राजा बराबर रखे। जीवन आधार प्रतियोगिता में भाग ले और जीते नकद उपहार
जैसे -जैसे राजा और कर्मो का कत्र्ता राजपुरूष वा प्रजाजन सुखरूप फल से युक्त होवे वैसे विचार राजा तथा राजसभा राज्य में कर स्थापन करे।
जैसे जोंक बछड़ा और भमरा थोड़े-थोड़े भोग्य पदार्थ को वैसे राजा प्रजा से थोड़ा-थोड़ा वार्षिक कर लेवे। अति लोभ से अपने,दूसरों के सुख के मूल को उच्छिन्न अर्थात् नष्ट कदापि न करे क्योंकि जो व्यवहार और सुख मूल का छेदन करता है वह अपने और उन को पीड़ा ही देता है। जो महापति कार्य को देख के तीक्ष्ण और कोमल भी होवे वह दुष्टों पर तीक्ष्ण और श्रेष्ठों पर कोमल रहने से राजा अतिमाननीय होता है। इस प्रकार सब राज्य का प्रबन्ध करके सदा इस में युक्त और प्रमादरहित होकर अपनी प्रजा का पालन निरन्तर करे। जिस भृत्यसहित देखते हुए राजा के राज्य में से डाकू लोग रोती विलाप करती प्रजा के पदार्थ और प्राणों को हरते रहते हैं वह जानों भृत्य अमात्यसहित मृतक है जीता नहीं और महादु:ख का पाने वाला है। इसलिये राजाओं का प्रजापालन ही करना परमधर्म है और मनुस्मृति के सप्तमाध्याय में कर लेना लिखा है और जैसा सभा नियत करे उस का भोक्ता राजा धर्म से युक्त होकर सुख पाता है,इस के विपरीत दु:ख को प्राप्त होता है।
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